पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४१८

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मतिराम-ग्रंथावली

FamanemiaTSUNEE ४१४ मतिराम-ग्रंथावली m lumunicommadhoo matonistentionarunmamari कहा भयो जो तजत है मलिन मधुप दुख मानि । सुबरन बरन सुबासजुत चपक लहै न हानि ॥३२०॥ अनुज्ञा-लक्षण करत दोष की चाह जहँ ताही मैं गुन देखि । तहाँ अनुज्ञा कहत हैं कबिजन ग्रंथनि लेखि ॥३२॥ उदाहरण मोर पखानि किरीट बन्यो मुकुतानि के कुंडल स्रौन बिलासी; चारु चितौनि चुभी 'मतिराम' सक्यौं बिसर मसकानि सधा-सी। काज कहा सजनी कुलकानि सौं लोग हँसैं सिगरे ब्रजबासी; मैं तौ भई मनमोहन को मुख चंद लब बिन मोल की दासी । ३२२॥ क्यौं इन आँखिन सौं निरसङ्क है मोहन को तन पापिन पीजे । नैक निहारें कलंक लगै इह गाँव बसें कहो कैसे के जीजे। होत रहै मन यों 'मतिराम' कहँ बन जाय बड़ो तप कीजे; व बनमाल हिए लगिए अरु कै मुरली अधरा रस लीजे ॥ ३२३॥ लेस-लक्षण जहाँ दोष गुन होत है, जहाँ होत गुन दोष । तहाँ लेस यह नाम कहि, बरनत कबि मति कोष ॥३२४॥ दोष से गुण-उदाहरण कत सजनी है अनमानो, अँसुवा भरति ससंक। बड़े भाग नँदलाल सौं, झूठहु लगत कलंक ॥३२५॥ छं० नं० ३२२ मैं तौ भई दासी=मैं तो मनमोहन का मुखचंद्र देखकर उनकी विना दामों की चेरी हो गई हूँ। देखो रसराज परकीया उदाहरण ।