पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४२९

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ललितललाम ४२५ कहै 'मतिराम' मजलिस मैं महीपनि की, कबिन की बानी हाड़ा सुजस मैं पगाती ; जेती' और राजनि के राजनि मैं संपति है, तेती रोज' राव कै चिराकै जोति जागती ॥३७८।। पियुष-पयोधि मद्ध मननि सौं बद्ध भूमि, रोध सौं रुचिर रुचि रोचक रवन मैं ; कामतरु बिपिनि कदंब उपबन सीरो, ___ सुरभि पवन डोले मृदु-सी गवन मैं । चिंतामनि मंडप बिराजै जगदंब सदा, - सावधान 'मतिराम' सेवक सेवन मैं ; लंपट - लुबुध मन भव मैं भँवत कहा, करि भूरि भावना भवानी के भवन मैं ॥३७९॥ उपलक्षण-उदाहरण निकसत जीवहिं बाँधि के तासौं राखति बाल । जमुनातट वा कुंज में तुम जु दई बनमाल ।।३८०॥ अत्युक्ति-उदाहरण जो सुंदरतादिकनि की अधिक झुठाई होय । ताहि कहत अत्युक्ति हैं कबि पंडित सब कोय ॥३८१॥ १ एती। छं० नं० ३७८ राजनि मैं राज्य में । चिराकै=दीपक । छं० नं० ३७९ गवन=गति । लुबुध-लुब्ध=लोभी। छं० नं० ३८० निकसत .."बनमाल=जमुनाजी के किनारे उस कुंज में तुमने जो वनमाला उसको दी थी उससे उसने निकल भागने का उद्योग करनेवाले जीव को बाँध रक्खा है अर्थात् वह तुम्हारी उस माला की बदौलत जीती है।