ललितललाम ४२७ स्याम-स्याम कहिए सिंगार रस राच्यौ' ताते, लाल-लाल कहिए रँग्यो है अनुराग सौं ॥३८॥ है कै डहडहे दिन समता के पायें बिन, साँझ सरसिजनि सरमि सिर नायो है ; निसा भरि निसापति करि कै उपाय बिन पायें रूप बासर बिरूप है लखायो है। कहै 'मतिराम' तेरे बदनि बराबरि को, आदरस बिमल बिरंचि न बनायो है ; दरपन न रह्यौ ताते दरपन कहियत, मुकर परत ताते मुकुर कहायो है ॥३८६॥ प्रतिषेध-लक्षण जहाँ प्रसिद्ध निषेध को अनुकीरतन प्रकास । तहाँ कहत प्रतिषेध हैं कबिजन बुद्धिबिलास ॥३८७॥ उदाहरण ऐसी करौ करतति बलाय ल्यौं नीकी बड़ाई लहौ जग जातें ; आई नई तरुनाई तिहारी ही ऐसे छके चितवौं दिन-रातें। लीजिए दान हौं दीजिए जान तिहारी सबै हम जानती घातें ; जानौं हमैं जनि वै बनिता जिनसौं तुम ऐसी करौ बलिबातें ॥ ३८८॥ विधि-लक्षण जहाँ सिद्धि ही बात को, करत प्रसिद्ध बखान । बिधि भूखन तहँ कहत हैं, सकल सुकबि सग्यान ॥३८९॥ १ रँग्यो, २ बिना। श्रृंगार का रंग काला और अनुराग का लाल माना गया है। छं० नं० ३८६ डहडहे प्रफुल्लित । बिरूप विगत रूप, सौंदर्य-विहीन । आदरस-आदर्श =दर्पण । दरप न=अभिमान-हीन । मुकर परत=फिर जाना । मुकुर=दर्पण ।
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