पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४३७

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मतिराम-सतसई


लगनि लगे लोचन लखे, जासों मोहन लाल । करि सनेह ता बाल सों, सिखै सकल ब्रज लाल ॥१५॥ तेरी औरे भाँति की, दीपसिखा-सी देह । ज्यों-ज्यों दीपति जगमग, त्यों-त्यों बाढ़त नेह ॥१६॥ पानिप मैं घर मीन को, कहत सकल संसार । दग मीननि को देखियत,पानिप पारावार ॥१७॥ देखें बानिक आजु की, वारों कोटि अनंग । भलो चल्यो मिलि साँवरे, अंग रंग पट रंग ॥१८॥ अबहीं सब तुम हेरती, हँसि-हँसि बातनि पागि । मेरे चितवत नेक ही, ब्रज में लागति आगि ॥१९॥ पागी प्रेम नँदलाल के, भरन आपू जल जाइ। घरी-घरी घर के तरें, घरनि देति ढरकाइ ॥२०॥ लपटानी अति प्रेम सों, दै उर उजर उतंग । घरी एक लगि छुटे हैं, रही लगी-सी अंग ॥२१॥ नींद, भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख । जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख ॥२२॥ जावक सों रागी पगनि, हरित नगन अंगुरीन । जाबक सों रागी पगनि, मन कीनो परबीन ॥२३॥ १ छ टेहु पर। छं० नं० १६ साधारण दीपक जितना ही प्रज्वलित होता है उतना ही उसका स्नेह (तेल) कम पड़ता है परंतु नायिका की दीपशिखा-रूप देह में जितनी ही दीप्ति अधिक जगमगाती है उतना ही उसका नेह (स्नेह=प्रेम) बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि यौवनागम में शरीर-क्रांति को साथ प्रेम भी बढ़ता जाता है। छं० नं० २० घरनि-घड़नि=घड़ों को । छं० नं० २२ करती हो तन राख=शरीर को भस्म करती हो । जलसाई समुद्र में शयन करनेवाले भगवान् ।

  • दे० ललितललाम उ० परिकरांकुर ।

+दे० रसराज उ० प्रौढ़ा। ShriGajraupaa