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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४५७

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मतिराम-सतसई ४५३ रूप जाल नंदलाल के, परि करि बहुरि छुटै न । खंजरीट मग मीन-से, ब्रजबनितनि के नैन ॥२२३।।* जाके सील समान है, साँचे होत सुमित्र । नेही चंचल चखनि कों, चाह्यो चंचल चित्त ॥२२४॥ खिन में प्रफुलित होत हैं, खिन में मुकुलित होत । इंदीबर अरबिंद से, चख मुख इंदु उदोत ॥२२॥ ग्रीषम हूँ रवि तपत हूँ, रहे जलद जनु झूमि । तपी दुगनि सीतल करै, गाँउ निकट की भूमि ॥२२६॥ नैन निवासी सों चल्यो, मन परदेस अनेह । लखति आजु अनभाँवती, सपने नैननि गेह ॥२२७।। आजुहि चल्यो बिदेस कों, तजि सनेह चित चोर। लखति भरे घर भाँवती, जमी घास चहुँ ओर ॥२२८॥ परी दूबरी सेज में, सखी निहारहि नीठि । परसति नहीं डराति-सी, धरिबे के उर डीठि ॥२२९॥ लखति एकटक साँवरी, मूरति को मुख इंदु।। रीझ भार अँखिया थकी, झलके स्रम-जल-बिंदु ॥२३०॥ चलो लाल वह बाग में, लखौ अपूरब केलि । आलबाल घन समय को, ग्रीषम रितु की बेलि ॥२३१॥ कहा कहों वाकी दसा, निठर कही नहिं जाइ। अंग अंगारनि को मिट, रंग आँच अधिकाइ ॥२३२॥ बड़वानल से जे लगे, अलिनि करत उपचार । मिलत लगे घनस्याम उर, ते अंग ज्यों घनसार ॥२३३॥ गई छबीली छूटि वह, छल सों नेह जनाइ। कहौ कौन के लै छला, आए लाल छलाइ ॥२३४॥

  • दे० ललितललाम उ० मालोपमा ।

दे० रसराज और ललितललाम । दे० ललितललाम उ० रूपकातिशयोक्ति । Jabarda