"सम बलजुत द्वै बात को बरनत जहाँ बिरोध,
कबि-कोबिद सब कहत हैं, तहँ बिकल्प स्रुति-सोध।"
उदाहरण में भावसिंहजी के आतंक का वर्णन है। शत्रुओं की भयभीत स्त्रियाँ अपने पतियों से कहती हैं—देखो, पहले तो हमारा कहना नहीं माना, परंतु अब दो में से केवल एक ही बात करनी होगी, या तो दाँतों में तिनका दबाओ या हाथ में तलवार धारण करो। दाँतों में तिनका दबाना संपूर्ण पराजय और अधीनता का लक्षण है। इससे संधि की इच्छा प्रकट होती है। उधर कृपाण धारण करने में युद्ध की सूचना का भाव भरा हुआ है, पर संधि और विग्रह, दोनो एक ही समय में हो नहीं सकते। अतः दोनो में स्पष्ट विरोध है। एक के पर्यवसान में ही दूसरे का आश्रय लिया जा सकता है। तात्पर्य यह कि अब या तो चुपचाप संधि कर लो या जमकर युद्ध करो। मतिरामजी के संपूर्ण छंद में इस प्रकार की समान बलवाली वस्तुओं का विरोध चार बार हुआ है। इन चारों में से एक भी विरोध शिथिलता पूर्ण नहीं है। मतिरामजी का विकल्प का उदाहरण बहुत उत्तम बन पड़ा है। संपूर्ण छंद इस प्रकार है—
"बिपिन-सरन कै चरन तकौ राव ही के,
चढ़ौ गिरि पर के तुरंग परवर मैं;
राखौ परिवार कौं कि आपनीय हठ, राज-
संपति दै मिलौ कै नगारे दै समर मैं।
कहै 'मतिराम', रिपुरानी निज नाहनि सों
कहै यों डरानी भावसिंहजी के डर मैं;
बैर तो बढ़ायौ, कह्यौ काहू को न मान्यो, अब
दाँतनि तिनूका के कृपान गहौ कर मैं।"
विषभ
जहाँ कारण के विरुद्ध कार्य की उत्पत्ति हो, वहाँ द्वितीय विषमा-लंकार की कल्पना की गई है। यथा-