"जहाँ बरनिए हेतु ते उपजत काज बिरूप;
और विषम तहॅं कहत हैं 'कवि मतिराम, अनूप।"
मतिरामजी का इस अलंकार का उदाहरण भी बड़ा ही अनूठा बन पड़ा है। नायिका ने श्वेत सारी धारण की है। बस, इसके प्रभाव से सपत्नियों के शरीर में श्यामता छा गई है। श्वेत हेतु के ठीक विरुद्ध श्याम कार्य हुआ है, और भी आश्चर्य-घटना घटी है। इसी श्वेत साड़ी के प्रभाव से श्यामसुंदर लाल (अनुराग) रंग में रँग गए हैं। कैसी विषम घटना है! गौरांगिनी सपत्नियाँ एक सफ़ेद साड़ी के प्रभाव से काली पड़ गई हैं, और श्यामवर्ण कृष्णचंद्र अनुराग-रंग (लाल) में सराबोर हो रहे हैं। सफ़ेद ने सफ़ेद को काला और काले को लाल कर दिया—
"वारने सकल एक रोरि ही की आड़ पर,
हाहा!! न पहिरि आभरन और अंग मैं;
X X X
X X X
लेत सारी ही सों सब सौतैं रैंगी स्याम रंग,
सेत सारी सों रँगे स्याम लाल रंग मैं।"
अपह्नुति
अब कुछ प्रधान अलंकारों के उदाहरण भी लीजिए। ऐसे अलंकारों में अपह्नुति का स्थान निर्विवाद है। अपह्नुति के कई भेदांतरों में से शुद्धापह्नुति और छलापह्नुति के उदाहरण बहुत ही स्पष्ट और मनोहर हैं। पहले शुद्धापह्नुति को लीजिए—
लोग कहते हैं, वह देखो भगवती जाह्नवी प्रियतमा के रूप में अपने प्रियतम सागर को मिल रही हैं। मतिराम कवि को यह कथन ठीक नहीं समझ पड़ता। उनका मत तो यह है कि बेचारा समुद्र बड़वानल की ज्वालमालाओं से झुलसा जा रहा है। भगवान् ब्रह्मा से, इस