'कबि मतिराम' कैधौं काम को सुजस कै,
पराग - पुंज प्रफुलित सुमन - सुबास है?
नाक नथुनी के गजमोतिन की आभा कैधौं,
देहवंत प्रकटित हिये को हुलास है?
सीरे करिबे को पिय-नैन घनसार कैधौं,
बाल के बदन बिलसत मृदु हास है?"
ललित लोचन
दृग सामंत के समान कुवलय को भी जीत लेते हैं। जलधि की समता भी नेत्रों से बड़ी ही अच्छी है। पर जलधि का खारापन अच्छा नहीं लगता। इधर आँखों की लुनाई अच्छी लगती है। ललित लोचनों को सजल जलद भी कह सकते हैं। इनकी विविध अवस्थाओं को देखकर ही कवि ने कह डाला है—
"एक ओर मीन मनो एक ओर कंज-पुंज,
एक ओर खंजन, चकोर एक ओर हैं।"
इनका प्रभाव ऐसा है कि—
"खोलि कै नैनन देखौ जो नेक, तो स्याम सरोज पराजय साजै।"
पर ये भयकारी नहीं हैं। दूर से इनको देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है, तभी तो किसी ने अपने प्यारे के स्वागत में—
"दृग-कमलन के द्वार मैं बाँधे बंदनवार।"
इनकी किस-किस बात की प्रशंसा की जाय। कभी-कभी तो इनमें सहज श्यामता ऐसी पाई जाती है कि—
"कजरारी अँखियान मैं भूल्यो काजर एक।"
पूर्ण प्रफुल्ल नेत्रों की बात ही क्या, यहाँ तो यह दशा है कि—
"अधमूॅंदी आँखियन दई दी प्रीति उघारि।"