. कुल हारफर पकड़ा गया था, उस समय बालादित्य की राजमाता उससे मिलने गई थी। हर्प की माता राजदरबारियों से मिलती थी। वाण ने फादवरी में विलासवती का भिन्न पर्दा भिन्न शकुन जाननेवाले ज्योतिपियों, मंदिर के पुजारियों और ब्राहाणों से मिलने और महाकाल के मंदिर में जाकर महाभारत की कथा सुनने का वर्णन किया है। राज्यश्री हुएन्त्संग से स्वयं मिली थी। तत्कालीन नाटकों में भी पर्द का कोई उल्लेख नहीं है। यात्री अवुर्जेद ने भी राज दरबारों में देशियों और विदे- शियों के सामने लियों के उपस्थित होने का उल्लेख किया है मेलों और उपवनों में पुरुषों के साथ साथ नियों के जाने का उल्लेख कामसूत्र आदि में मिलता है। खियाँ राजा के सेवक का कार्य भी करती थीं और दरवार, हवाखोरी, लड़ाई आदि में उनके साथ रहती थीं। वे शस्त्र धारण कर घोड़ों पर सवार होती थीं। कहीं कहीं युद्ध के समय रानियों और अन्य स्त्रियों के पकड़े जाने का भी उल्लेख मिलता है। दक्षिण के पश्चिमी सोलंकी विक्रमादित्य की बहिन अक्कादेवी वीर प्रकृति की और राजकार्य में निपुण थी और चार प्रदेशों पर शासन भी करती थीं। एक शिलालेख से पाया जाता है कि उसने गोकागे (गोकाक, वेलगाँव जिले में ) के किले पर भी घेरा डाला था। इसी तरह ऐसे अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उस समय पर्दे की प्रथा विद्यमान नहीं थी। इतना निश्चित है कि राजायों के अंतःपुर में सर्व साधारण फा प्रवेश नहीं होता था। मुसलमानों के आने के बाद से पर्दे का प्रचार हुआ। उत्तरीय भारत में मुसलमानों का जोर अधिक होने से वहाँ शनैः शनैः पर्दे एवं यूंघट की प्रथा बड़े घरों में चली, परंतु जहाँ उनका अधिक प्रभाव नहीं हुआ, वहाँ
- वॉटर्स नि युवनचर्चाग, जिल्द १, पृ० २८८-८६ ।