पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ८६ ) से संबंध रखनेवाले कुछ और भी छोटे छोटे ग्रंथ लिखे गए, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं-वर्धमान-प्रणीत 'गणरत्न-महोदधि', भासर्वज्ञ- कृत 'गणकारिका', वामन-विरचित 'लिंगानुशासन', हेमचंद्र-लिखित 'उणादि-सूत्रवृत्ति', 'धातुपाठ', 'धातुपारायण', 'धातुमाला', 'शब्दानुशासन' आदि । अमर- काप हम ऊपर लिख चुके हैं कि संस्कृत साहित्य के विकास की दिशा भापा-परिवर्तन की ओर नहीं थी। उसकी दिशा शब्द-भांडार बढ़ाने, भापा में लालित्य तथा अलंकार लाने की तरफ थी। इस काल में संस्कृत साहित्य का शब्द-भांडार बहुत बढ़ता गया। उसके बढ़ने का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि संस्कृत के कोप भी बने। कुछ कोप ऐसे हैं, जिनमें एक नाम के तमाम पर्यायवाची शब्द इकट्ठ दिए गए हैं और कुछ ऐसे हैं, जिनमें एक शब्द के सव अर्थ इकट्ठे दिए हैं। कई कोपों में शब्दों के लिंग भी बताए गए हैं। सिंह का बनाया हुआ छंदोबद्ध 'अमरकोप' बहुत प्रसिद्ध है, जो हमारे समय के प्रारंभ के आसपास का बना हुया है। यह कोप इतना लोकप्रिय हुआ कि इस पर करीब ५० टीकाएँ लिखी गई उनमें से अव कुछ का ही पता लगता है, जिनमें से भट्ट क्षीरस्वामी की, जो संभवतः १०५० ई० के करीब हुआ, टीका विशेष प्रसिद्ध है। पुरुपोत्तम देव ने 'त्रिकांडशेप' के नाम से अमर- कोष का एक परिशिष्ट लिखा। यह बहुत ही उपयोगी कोप है, क्योंकि इसमें बौद्ध संस्कृत तथा अन्य प्राकृत भापाओं के भी. शब्द हैं। इसके लेखक ने 'हारावली' नामक भी एक कोप लिखा, जिसमें वहुत से ऐसे कठिन शब्दों का समावेश किया गया जिनका -