पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१४१

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3 - , . ( ८८ ) ६०० ई० से पूर्व तक छहों संप्रदायों के मुख्य मुख्य सूत्र ग्रंथों का निर्माण हो चुका था और उन पर प्रामाणिक तया उपयोगी भाष्य भी लिखे जा चुके थे। न्यायदर्शन वह शास्त्र है, जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरूपण रहता है। न्यायदर्शन के अनुसार सोलह पदार्थों-प्रमाण, प्रमेय, न्यायदर्शन संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान- के सम्यक ज्ञान के द्वारा अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। प्रमाण चार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । प्राप्त (साक्षात्कृत- धर्मा) का शब्द ही प्रमाण है। अदृष्टार्थ में केवल वेद ही प्रमाण है। वेद ईश्वरकृत हैं, इससे उनके वाक्य सदा सत्य और विश्वसनीय हैं। प्रमेय ( जानने योग्य पदार्थ ) बारह है- (१) आत्मा-सव वस्तुओं का देखनेवाला, भोग करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला। (२) शरीर-भोगों का आयतन । (३) इंद्रियाँ-भोगों के साधन । (४) अर्थ-भोग्य पदार्थ (५) बुद्धि । (६) मन। (७) प्रवृत्ति-मन, वचन और शरीर का व्यापार । (८) दोप-जिसके कारण सांसारिक कार्यों में प्रवृत्ति होती है। (६) पुनर्जन्म। (१०) फल-सुख या दुःख का अनुभव । (११) दुःख । ( १२ ) अपवर्ग या मोक्ष।