पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१५८

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जो बहुत (१०७ ) की वृहत्संहिता फलित ज्योतिष के लिये मुख्य ग्रंथ है। इसमें मकान बनाने, कूप और तालाब खोदने, बाग लगाने, मूर्ति स्थापना आदि के लिये बहुत से शकुन दिए हैं। विवाह और दिग्विजय के लिये प्रस्थान के संबंध में उसने कई ग्रंथ लिखे। फलित ज्योतिप पर 'बृहज्जातक' नाम से भी उसने एक बड़ा ग्रंथ लिखा, प्रसिद्ध है। ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति देखकर मनुष्य का भविष्य वताना इस पुस्तक का मुख्य विषय है। ६०० ई० के करीब वराह- मिहिर के पुत्र पृथुयशा ने 'होराषट्पंचाशिका' नामक फलित ज्योतिष संबंधी एक पुस्तक लिखी। दसवीं शताब्दी में भट्टोत्पल ने उपर्युक्त पुस्तक तथा वराहमिहिर के ग्रंथों पर बहुत उत्तम और विस्तृत टीकाएँ लिखीं। श्रीपति ( १०३६ ई.) ने भी इस संबंध में रत्न- माला' और 'जातकपद्धति' ग्रंथ लिखे। इसके पीछे भी इस विपय के बहुत से ग्रंथ लिखे गए। गणित ज्योतिप के इस विकास के साथ गणित शास्त्र का विकास भी होना आवश्यक था। हस देखते हैं कि ६०० ई० तक भारतवर्ष गणित शास्त्र में पराकाष्ठा तक पहुँच चुका था। भारतीय गणित शास्त्र उसने ऐसे ऐसे उच्च सिद्धांतों का आविष्कार कर लिया था, जिनका चूरोपियन विद्वानों को कई सदियों पीछे ज्ञान हुआ। प्रसिद्ध विद्वान् काजोरी ने अपनी "हिस्ट्री ऑफ मैथे- मैटिक्स" में लिखा है- 'यह ध्यान देने की बात है कि भारतीय गणित ने हमारे वर्तमान विज्ञान में किस हद तक प्रवेश किया है। वर्तमान वीजगणित और अंकगणित दोनों की विधि और भाव भार- तीय हैं, यूनानी नहीं। गणित के उन संपूर्ण और शुद्ध चिह्नों,