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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१७१

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( १२० ) शल्यविद्या का भी उस समय आश्चर्यजनक विकास हो चुका या। 'सुश्रुत' में शल्यविद्या का बहुत वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में आयुर्वेद के जन्मदाता तीन प्राचार्या--दिवोदास, शल्यविद्या का विकास भारद्वाज और अश्विनी-का उल्लेख है। महाभारत में भी भोप्म के शरशय्या पर लेटने पर दुर्योधन का शल्य निकालनेवाले वैचों के लाने का उल्लेख है। विनयपिटक कं महा- वग्ग में लिखा है-"अश्वघोप ने एक भिन्नु के भगंदर रोग पर शल्य. कर्म का प्रयोग किया था." उस समय जीवक नाम का बाद्ध भिपक आयुर्वेद का विशेषतः शल्यचिकित्सा का बड़ा भारी विद्वान हुआ, जिसका विस्तृत वर्णन महावग्ग में मिलता है। उसने भगंदर, शिरोरोग कामला आदि विपम रोगों के पाराम करने में प्रसिद्धि पाई थी। भोज-प्रबंध में वेहोश कर शल्य कर्म करने का उल्लेख है। चोर फाड़ के शस्त्र साधारणतया लोहे के बनाए जाते थे, परंतु राजा एवं संपन्न लोगों के लिये स्वर्ण, रजत, ताम्र आदि के भी प्रयुक्त होते थे। यंत्रों के लिये लिखा है कि वे तेज, खुरदरे, परंतु चिकने मुखवाले, सुदृढ़, उत्तम रूपवाले और सुगमता से पकड़े जाने के योग्य होने चाहिएँ . भिन्न भिन्न कार्यों के लिये शस्त्रों की धार, परिमाण आदि भिन्न भिन्न होते थे शस्त्र कुंठित न हो जायें, इस- लिये लकड़ी के शस्त्रकोश ( Casos ) भी बनाए जाते थे, जिनके ऊपर और अंदर कोमल रेशम या ऊन का कपड़ा लगा रहता था। शस्त्र आठ प्रकार के-छेद्य, भेद्य, वेध्य ( शरीर के किसी भाग में से पानी निकालना ), एण्य ( नाड़ी आदि में व्रण का हूँढ़ना ), आर्म्य ( दाँत या पथरी आदि का निकालना ). विसाव्य ( रुधिर

  • यद यात दिवोदासाय वर्ति भारद्वाजायश्विनायंता ।

प्राग्वेद, म० १-१२-१६ + एश्य'ट सर्जिकल इंस्टुमेंट्स; जि० १ । 1 .