पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१७२

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, ( १२१ ) का विस्रवण करना), सीव्य ( दो भागों को सीना ) और लैख्य ( चेचक के टीके आदि में कुचलना)-हैं। हमारे समय के वाग्भट्ट ने तेरह प्रकार के शल्य कर्म माने हैं। सुश्रत ने यंत्रों ( औजार जो चीरने के काम में आते हो ) की संख्या १०१ मानी है; परंतु वाग्भट्ट ने ११५ मानकर आगे लिख दिया है कि कर्म अनिश्चित हैं, इसलिये यंत्र-संख्या भी अनिश्चित है; वैद्य अपने आवश्यकतानुसार यंत्र बना सकता है। शत्रों की संख्या भिन्न भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न मानी इन यंत्रों और शस्त्रों का विस्तृत वर्णन भी उन ग्रंथों में दिया है। अर्श, भगंदर, योनि-रोग, मूत्रदोष, आर्तव दोष, शुक्रदोष आदि रोगों के लिये भिन्न भिन्न यंत्र प्रयुक्त होते थे। व्रणवस्ति, वस्तियंत्र, पुष्पनेत्र ( लिंग में औषध प्रविष्ट करने के लिये ), शलाका-यंत्र, नखाकृति, गर्भशंकु, प्रजननशंकु ( जीवित शिशु को गर्भाशय से बाहर करने के लिये ), सर्पमुख ( सीने के लिये ) आदि बहुत से यंत्र हैं। व्रणों और उदरादि संबंधी रोगों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की पट्टी बाँधने का भी वर्णन किया गया है। गुदभ्रंश के लिये चर्म-बंधन का भी उल्लेख है। मनुष्य या घोड़े के वाल सीने आदि के लिये प्रयोग में आते थे। दूषित रुधिर निकालने के लिये जोक का भी प्रयोग होता था। जोंक की पहले परीक्षा कर ली जाती थी कि वह विषैली है अथवा नहीं। टीके के समान मूर्छा में शरीर को तीक्ष्ण अख से लेखनकर दवाई को रुधिर में मिला दिया जाता था। गतिव्रण ( Sinus ) तथा अर्बुदों की चिकित्सा में भी सूचियों का प्रयोग होता था। त्रिकूर्चक शस्त्र का भी कुष्ट आदि में प्रयोग होता था। अाजकल लेखन करते समय टीका लगाने के लिये जिस तीन-चार सुइयांवाले औजार का प्रयोग होता है, वह यही त्रिकूर्चक है। वर्तमान काल का Tooth-elerator पहले दंतशंकु के नाम से प्रचलित था। म.--१६