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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१७३

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( १२२ ) प्राचीन आर्य कृत्रिम दांतों का बनाना पार लगाना तथा कृत्रिम नाक वनाकर सीना भी जानते थे। दांत उखाड़ने के लियं एनीपद शन का वर्णन मिलता है। मोतियाबिंद ( Cataract ) के निकालने के लिये भी शव था। कगल-नाल का प्रयोग दूध पिलानं अथवा वमन कराने के लिये होता ग्रा, जो आजकल के Stomach Pump का कार्य देता था। इसी तरह सर्प-विद्या का भी प्रचार कम नहीं था। सिकंदर का सेनापति नियास लिखता है कि यूनानी लोग सर्प-विष दूर करना नहीं जानते, परंतु जो मनुष्य इस दुर्घ- सर्प-विद्या टना में पड़े, उन सबको भारतीयां ने दुरुस्त कर दिया। दाहक्रिया और उपवास-चिकित्सा से भी भारतीय पूर्णतया परिचित थे। शोध रोग में नमक न देने की बात भी भार- तीय चिकित्सक हजार वर्ष पूर्व जानते थे पशु-चिकित्सा भी फम उन्नत नहीं थी। इस विषय के भी बहुत ग्रंथ मिले हैं। पालकाप्य-कृत 'गजचिकित्सा', 'गजायुर्वेद', गजदर्पण' (इसका हेमाद्रिने उल्लेख किया है), 'गजपरीक्षा', पशु-चिकित्सा बृहस्पति-रचित 'गजलक्षण', 'गजलक्षण', 'गोवैद्यशास्त्र', जयदत्त-कृत अश्वचिकित्सा,' नकुल-लिखित 'शालिहोत्र शास्त्र', 'अश्व- तंत्र' (इसका उल्लेख रायमुकुट ने अमरकोप की टोका में किया है), गण- रचित 'अश्वायुर्वेद' (सिद्धयोगसंग्रहः), 'अश्वलक्षण', 'हयलीलावती' ( मल्लिनाथ ने इसे उद्धृत किया है ) आदि के अतिरिक्त भी बहुत से अन्य ग्रंथ मिलते हैं। अधिकांश में ये ग्रंथ हमारे ही समय के हैं।

  • जो प्राचीन शल्यचिकित्सा के विषय में विशेष देखना चाहें वे नागरी-

प्रचारिणी पत्रिका; भाग ८, अंक १, २ में प्रकाशित 'प्राचीन शल्यतंत्र' लेख देखें। । वाइज; हिस्ट्री श्राफ मैडिसिन, पृ० ६ । . . .