( १२३ ) तेरहवीं सदी में पशुचिकित्सा-संबंधी एक संस्कृत ग्रंथ का फारसी में अनुवाद किया गया था। इसमें निम्न लिखित ग्यारह अध्याय हैं- १-घोड़ों की जाति । २-उनकी सवारी और उनकी पैदाइश । ३-अस्तबल का प्रबंध । ४-घोड़ों के रंग और जातियाँ । ५-उनके दोष । ६-उनके अंग-प्रत्यंग। ७-उनकी बीमारी और चिकित्सा । ८-उनका दूषित रक्त निकालना । -उनका भोजन। १०-उनको हृष्ट पुष्ट बनाने के साधन । ११-दाँतों से आयु को जानना*। पशु-चिकित्सा के साथ साथ पशु-विज्ञान और कृमिशास्त्र भी अत्यंत उन्नत था। भारतीय विद्वान् पशुओं के स्वभाव, प्रकृति आदि से पूर्णतया परिचित थे। पशुओं के पशु-विज्ञान शरीर-विज्ञान को भी वे भली भाँति जानते थे। घोड़े के दाँतों को देखकर उसकी आयु का पता लगाने की प्रथा भारत में पुरानी है। सर्पो की भिन्न भिन्न जातियाँ उन्हें मालूम थीं। भविष्य पुराण से पाया जाता है कि वे वर्षा ऋतु के पूर्व संग करते हैं और अनुमान ६ मास के वाद सर्पिणी २४० अंडे देती है। बहुत से अंडे तो माता-पिता खा जाते हैं और बचे हुए अंडों से दो मास में बच्चे स्वयं निकल पाते हैं। सातवें दिन वे काले हो जाते हैं और १५-२० दिन में उनके दाँत निकल आते हैं। तीन सप्ताहों में उनमें विष उत्पन्न हो जाता है, ६ मास में साँप
- हरावलास सारडा; हिंदू सुपीरियोरिटी; पृष्ट २५६-५७ ।
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