( १२४ ) केंचुली उतारते हैं। उनकी त्वचा पर २४० संधियों होता है । डल्लसा ने सुश्रत की टीका करते हुए लाट्यायन का उद्धरण देकर लिखा है कि वह कृमियों और सरीसृपों ( रंगनेवाले जंतुओं ) के विषय में प्रामाणिक विद्वान् है। उसने कृमियों के भिन्न भिन्न अंगों पर भी विचार किया है। हमारे समय के आसपास का जैन पंडित सदेव का लिखा हुआ 'मृगपक्षिशास्त्र' भी अपने विषय का बहुत उपयोगी और प्रामाणिक ग्रंथ है। उसमें सिहों का वर्णन करते हुए उनके ६ भेद- सिंह, मृगेंद्र, पंचास्य, हर्यक्ष, केसरी और हरि-बताकर उनकी विशेपताएँ बताई हैं। सिह का वर्णन करते हुए लिखा है कि सिंह के लंवी पूँछ और गर्दन पर बने वाल होते हैं, जो कद के छोटे, सुन- हरे वर्णवाले और पीछे की ओर कुछ सफेद होते हैं। बदन पर सर्वत्र कोमल वाल रहते हैं। सिंह वदन के बड़े मजबूत और भागने में तीर से तेज होते हैं। भूख लगने पर अत्यंत भयंकर और यौवन काल में विशेष कामुक होते हैं। वे प्रायः गुफाओं में रहते और प्रसन्न होने पर पूँछ हिलाया करते हैं। इसी तरह अन्य भी शेर के भेदों का विस्तृत वर्णन करने के वाद शेरनी का वर्णन किया गया उसके गर्भ, गर्भकाल, स्वभाव आदि पर भी उक्त ग्रंथ में बहुत प्रकाश डाला गया है शेर के वर्णन के अनंतर ग्रंथकर्ता हंसदेव ने व्याघ्र, जरख, भालू, गैंडे, हाथी, घोड़े, ऊँट, गधे, गाय, बैल, भैंस, बकरी, हरिण, गीदड़, बंदर, चूहा आदि अनेक पशुओं और गरुड़, हंस, बाज, गिद्ध, सारस, कौआ, उल्लू, तोता, कोयल आदि नाना पक्षियों का विस्तृत विवरण दिया है, जिसमें उनकी किस्में, वर्ण, युवाकाल, संभोग
- विनयकुमार सरकार; हिंदू एचीवमेंट्स इन एक्जैक्ट साइंसेज;
9 पृ०७१-७५।