पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१८६

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. . . 7 . ग्रंथ नहीं मिलता, इससे यह अभिप्राय नहीं है कि इस विषय का कोई ग्रंथ था ही नहीं। आन्वीक्षिकी, त्रयी और दंडनीति के नाम से भी कोई ग्रंथ नहीं मिलते, परंतु इनके विषयों पर भिन्न भिन्न ग्रंथ पाए जाते हैं। इसी तरह वार्ता या अर्थशास्त्र के संबंध में भी उसकी भिन्न भिन्न शाखाओं पर अनेक ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। कृपि के संबंध में पादपविवक्षा', 'वृक्षदोहद', 'वृक्षायुर्वेद', 'शस्यानंद', 'कृपिपद्धति' और 'कृषिसंग्रह' आदि ग्रंथ मिलते हैं। भवन निर्माण शास्त्र तथा शिल्प पर 'वास्तुसौख्य', अपराजित 'वास्तुशास्त्र', 'प्रासादानुकीर्तन', 'चत्रशास्त्र', 'चित्रपट', 'जलार्गल', 'पक्षिमनुष्यालयलक्षण', 'रघ- लक्षण', 'विमानविद्या', 'विमानलक्षण' (ये दोनों ध्यान देने योग्य है), 'विश्वकर्मीय', 'कौतुकलक्षण', 'मूर्तिलक्षण', 'प्रतिमाद्रव्यादिवचन', 'सकलाधिकार', सारस्वतीय 'शिल्पशास्त्र', 'विश्वविद्याभरण', 'विश्व- कर्मप्रकाश' और 'समरांगणसूत्रधार' ( इसके विषय में ऊपर लिखा जा चुका है ) के अतिरिक्त 'मयशिल्प' और 'विश्वकर्मीय शिल्प' ग्रंथ मिलते हैं। मयशिल्प में शिल्प के लक्षण, भूमिपरीक्षा, भूमिमापन, दिशानिर्णय, ग्राम और नगर का विस्तार, भवनों के भिन्न भिन्न अंग, दुमंजिले तिमंजिले मकान, द्वार आदि, और विश्वकर्माय शिल्प में मंदिरों, भिन्न भिन्न मूर्तियों तथा उनके आभूषणों आदि पर विचार किया गया है। इन ग्रंथों में से बहुतों के समय अज्ञात या अनिश्चित हैं, परंतु संभवत: इनमें से अनेक हमारे समय के बने हुए होंगे। रत्नपरीक्षा पर भी भिन्न भिन्न ग्रंथ मिलते हैं, जिनमें से 'रत्नादि- परीक्षा', 'रत्न-परीक्षा', मणि-परीक्षा', 'ज्ञानरत्नकोप', 'रत्नदीपिका' और रत्नमाला' आदि ग्रंथ मुख्य हैं। धातु-विज्ञान (Metallurgy) भी कम उन्नत नहीं था। इस विपय पर भी कुछ ग्रंघ मिलते हैं, जिनमें से कुछ ये हैं-'लोहरत्नाकर', 'लोहार्णव' और 'लाहशास्त्र' । भूमि-मापन ( Surrer ) के संबंध में भी एक बंध 'नेत्रगणित- १