. . 3 उन ( १३८) खायन', 'भवियकुटुंबचरित्र', 'संदेशशतक' और 'भावनासंधि' आदि भी इसी भाषा के ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त भिन्न भिन्न ग्रंथों- सोमप्रभ का 'कुमारपालप्रयोध', रत्नमंदिरमणि की 'उपदेशतरंगिणी', लक्ष्मणगारी-कृत 'सुपासनाहचरियम्', 'दाहाकोप', कालिदास का 'विक्रमोर्वशीय' ( चतुर्थ अंक ), हेगचंद्र-लिखित 'कुमारपालचरित', (प्राकृत द्वराश्रयकाव्य ), 'कालकाचार्यकट्टा' और 'प्रबंधचिंतामणि' आदि-में स्थल स्थल पर अपभ्रंश का प्रयोग किया गया है। हेम- चंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश के जो १७५ उदाहरण दिए हैं, वे भी अपभ्रंश साहित्य के उत्कृष्ट नमूने हैं। उनसे मालूम पड़ता है कि अपभ्रंश स हित्य बहुत विस्तृत और उन्नत था। उदाहरणों में शृंगार, वीरता, रामायण और महाभारत के अंश, हिंदू और जैन धर्म तथा हास्य के नमूने मिलते हैं। इस भाषा के साहित्य में प्राय: जैनियों ने बहुत परिश्रम किया। प्राकृत भापा की उन्नति के साथ उसके व्याकरण का भी उन्नत होना आवश्यक था। हमारे समय से कुछ पूर्व वररुचि ने 'प्राकृत- प्रकाश' नामक प्राकृत भापा का व्याकरण लिखा है। उसमें लेखक ने महाराष्ट्रो, पैशाची, मागधी और शौरसेनी के नियमों का वर्णन किया है। लंकेश्वर-कृत 'प्राकृतकामधेनु', मार्कडेय-कृत 'प्राकृतसर्वस्व' और चंडकृत 'माकृतलक्षण' आदि भी प्राकृत व्याकरण के उत्तम ग्रंथ हैं । प्रसिद्ध विद्वान् हेमचंद्र ने संस्कृत व्याकरण 'सिद्धहेमचंद्रानुशासन' लिखते हुए उसके अंत में प्राकृत व्याकरण लिखा। उसमें 'सिद्धांत- कौमुदी' की तरह विपय-विभाग से सूत्रों का क्रम है। हेमचंद्र ने पहले महाराष्ट्री के नियम लिखे। आगे शौरसेनी के विशेष
- भविसयत्तकहा; भूमिका; धृ० ३६-४६ (गायकवाड़ अोरियंटल
सीरीज में प्रकाशित संस्करण)। प्राकृत व्याकरण