नियम लिखकर लिखा कि 'शेपं प्राकृतवत्'। फिर मागधी के विशेष नियम लिखकर लिखा-'शेष शौरसेनीवन् । इसी तरह पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश के विशेष नियम लिखे तथा अंत में सब प्राकृतों को लक्ष्य में रखकर लिखा कि 'शेषं संस्कृतवलिद्धम् । संस्कृत और दूसरी प्राकृतों के व्याकरण में तो उसने अपनी वृत्ति में उदाहरणों की तरह प्रायः वाक्य या पद दिए हैं, किंतु अपभ्रंश के अंश में उसने बहुधा पूरी गाथाएँ, पुरे छंद और अवतरण दिए हैं प्राकृत भाषा के कई कोष भी लिखे गए धनपाल ने ७२ ई० में 'पाइयलच्छीनाममाला लिखा। अवन्तिसुंदरी (राजशेखर की स्त्री) ने प्राकृत कविता में आनेवाले देशी शब्दों प्राकृत-कोष का कोष बनाया था और उसमें प्रत्येक शब्द के प्रयोग के स्वरचित उदाहरण दिए थे। यह कोप अब उपलब्ध नहीं है। हेमचंद्र ने अपने कोष में उसका सत भी उद्धृत किया है । हेम- चंद्र ने भी प्रांतीय भाषाओं के संग्रह का 'देशीनाममाला' नामक ग्रंथ लिखा। कवितावद्ध होने के अतिरिक्त उसके शब्द अकारादि क्रम से रखे गए हैं और उनमें भी पहले दो दो अक्षरों के, फिर तीन तीन के, तदनंतर चार चार अक्षरों कं शब्द दिए हैं। यह देशी भाषा के अध्ययन के लिये बहुत उपयोगी कोप है। पाली का भी एक कोप मोगलायन ने 'अभिधानप्पदीपिका' नास से १२०० ई. के करीब लिखा, जिसमें अमरकोष की शैली का अनुकरण किया गया है। > दक्षिण भारत की मादाएँ उत्तर भारत की भाषाओं के साहित्य का विवेचन करने के बाद दक्षिण भारत की द्रविड़ भापानों का वर्णन करना भी आवश्यक द्रविड़ भाषाओं के साहित्य में हमें विस्तृत सामग्री नहीं मिलती, इसलिये हम बहुत संक्षेप से इन पर विचार करेंगे। है --
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