(१४०) दक्षिण भारत की द्रविड़ भापायों में सबसे मुख्य और प्रथम तामिल भाषा है। यह तामिल प्रदेश में बोली जाती है। इसकी प्राचीनता के विषय में कुछ निश्चित रूप से तामिल नहीं कहा जा सकता। इसका सबसे प्राचीन व्याकरण 'तोल काप्पियम' है, जिसका कर्ता प्रचलित दंतकथाओं के आधार पर ऋपि अगस्त्य का शिष्य माना जाता है। इसके परने से मालूम होता है कि तामिल साहित्य का भी विस्तृत इतिहास था। इस भापा का सब से प्राचीन ;य 'नालदियार' मिलता है। यह पहले बहुत बड़ा ग्रंथ था, अब इसके कुछ अंश ही रह गए हैं। दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ पि तिरुवल्लुकर का 'कुरल' है, जो वहाँ वेद की तरह पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। उसमें तीनों वर्गो, धर्म, अर्थ और काम के संबंध में अत्यंत उपयोगी उपदेश हैं। वह तामिल साहित्य का अत्यंत उत्कृष्ट ग्रंथ है उसका कर्ता जाति का अन्त्यज माना जाता है और संभवतः वह जैन था। किसी अज्ञात कवि कृत 'चिंतामणि', कंबन-कृत 'रामायणम्', 'दिवाकरम्', 'तामिलव्याकरण' यादि भी इसी भाषा के हमारे समय के ग्रंथ हैं। इसमें कई ऐतिहासिक काव्य भी लिखे गए, जिनमें से कुछ के नाम नीचे दिए जाते हैं-पोइकयार-कृत 'कळवळिनाडपटु' (साती सदी के आसपास), जयकौडान लिखित 'कलिंगत्तुपरणी' ( ग्यारहवीं शताब्दो ), 'विक्रम शोलनुला' (वारहवीं सदी) और 'राजराजनुला' ( बारहवीं सदी)। इस साहित्य को प्रायः जैनियों ने ही बढ़ाया फिर वहाँ शैव धर्म का प्रचार हो गया। तामिल लिपि के अत्यंत अपूर्ण होने के कारण उसमें संस्कृत भाषा नहीं लिखी जा सकती थी, इसलिये उसके लिखने के लिये नई 'ग्रंथलिपि' का निर्माण किया गया जिसमें सब ग्रंथ लिखे जाने लगे।
- मेरी; भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की सामग्री; पृ० २६-३० ।