व्यापार होता था। सगुद्र-यात्रा का निपंध पीछे से हया। हर्य ने हुएन्संग को सगुद्र-मार्ग से चीन लौटने की सलाह दीघा ; जावा की फयाओं से ५००० भारतीयों का कई जहाजों व्यापार के जलमार्ग द्वारा जावा में जाने का वर्णन मिलता है। इत्सिंग लौटता हुआ समुद्र-गार्ग से ही चीन को गया शा। भारतीय पोतकला में बहुत प्रवीण घे पार इसे वे बहुत प्राचीन काल से जानते थे। प्रोफेसर मैक्सडंकर के घनानुसार ई० पूर्व २००० में भी भारतीय इस कला से अभिशये* स्थलमार्ग से भी व्यापार बहुत बढ़ा हुआ था। भारतवर्ष में व्यापार के लिये बड़ी बड़ी सड़क बनाई जाती थीं। इन सड़कों का महत्त्व युद्ध की दृष्टि से भी बहुत था । व्यापार के स्थलमार्ग एक विशाल सड़क कोरोमंडल तट ( पूर्वी) से कुमारी अंतरीप तक १२०० मील लंबी थी, जिसे कुलोत्तुंग चोड़देव ( ई० स० १०७०-१११८ ) ने बनवाया था। से भी विशेष महत्त्व था। हमारे समय से बहुत पूर्व मौर्यकाल में भी पाटलिपुत्र से अफगानिस्तान तक ११०० मील लंबी सड़क वन चुकी थी। साधारण सड़कें तो बहुत जगह बनी हुई थीं। स्थल- मार्ग से केवल स्वदेश में ही नहीं, विदेश में भी व्यापार होता था । राइज डेविड्ज ने लिखा है--"स्वदेश और विदेश में भारतीय व्यापार दोनों मार्गों से होता था। ५०० चैलगाड़ियों के कारवान का वर्णन मिलता है।" । स्थलमार्ग से चोन, वैविलन, अरव, फारस आदि के साथ भारत का व्यापार होता था। एसाइछोपीडिया
- हरविलास सारडा; हिंदू सुपीरियारिटी; पृ० ३६४ ।
चिनयकुमार सरकार; दी पोलिटिकल इंस्टिट्य शंस एंड प्यूरीज श्राफ दी हिंदूज; पृ० १०२-३ । दी जरनल श्राफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी; १९०१ ई० । इसका सैनिक दृष्टि