पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२२१

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था। - व्यवसाय ( १६८) वन्ध बहुत प्रकार के बनते थे। मागाजिक स्थिति में हम भिन्न भिन्न वन्नों के उपयोग के विषय में निग्य चुके हैं। भारत में गहीन सं महीन गनगल, छींट, शाल दुशाने आदि कपड़े बनने में। कपड़े रेंगने की भी फला यहां बहुत उन्नत भी! बनस्पतियों से भी तरह तरह के रंग निकाले जाते थे. यह याविष्कार भी पहन पहल भारतीयों ने ही किया था। नील की खेती तो कंवल रंग के लियं की होती थी। वन-व्यवसाय तो १८ वी शताब्दी तक चलता रहा और ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में नष्ट हुआ लोहे और फौलाद के व्यवसाय की भी पाश्चर्यजनक उन्नति हुई थी। कच्चे लोहे को गलाकर फौलाद बनाना उन्हें प्राचीन फाल से ज्ञात था। खेती आदि के सब प्रकार लोहा यादि धातुनों कं लोहे के बाजारों और युद्ध के हथियारों का बनना भारत में प्राचीन काल से चला आता था। लोहे का यह व्यवसाय इतना अधिक था कि भारत की आवश्यकताओं से बचकर फिनिशिया में जाया करता था । डाक्टर राय ने लिखा है-'दमिश्क के तेज धारवाले औजारों की बड़ी प्रशंसा की जाती है, परंतु यह कला फारस ने भारत से सीखी थी और वहाँ से अरववालों ने इसका ज्ञान प्राप्त किया। भारत के लोह-व्यवसाय के उत्कर्प को दिखाने के लिये कुतुब- मीनार के पासवाला लोहस्तम्भ ही पर्याप्त उदाहरण है। इतना विशाल स्तंभ आज भी यूरोप और अमेरिका का कोई बड़े से बड़ा कारखाना गढ़कर नहीं बना सकता ! आज उसे :ने हुए अनुमान १५०० वर्ष हो गए, खुली हवा तथा वर्षा में रहने पर भी उस पर जंग का नाम नहीं और उसकी कारीगरी भी प्रशंसनीय है।

  • हरविलास सारडा; हिंदू सुपीरियोरिटी; पृ० ३५५ ।

का व्यवसाय १