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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२२३

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गण ( १७० ) गरी का काम होता था। इन फागों के पाजार बहुत सन्म होते थे। स्टेवरिनस (Strorinus) ने लिखा है कि भारतीय शिल्पी इतने छोटे पौर सूक्ष्म पाजारों से काग करते हैं कि गूरोपियन उनकी सफाई और चतुरता पर पाश्चर्यान्वित जात उद्योग-धंधे के काग बड़े बड़े पंजीपतियों द्वारा नहीं होते थे उस समय गणसंस्था ( Huilds ) का प्रचार या । एक पेशेवाले अपना सुव्यवस्थित सगुदाय बनाते थे। गणसंस्था के प्रत्यक सभ्य को उसके सब नियम मानने पड़ते थे , गण, पदार्थ की उत्पत्ति और विक्रा का प्रबंध करता था। गाँवों या जिलों की सभाओं में इनके भी प्रतिनिधि रहते , जो देश के व्यवसाय का ध्यान रखते । राज्य भी इनकं संघ की सत्ता मानता था। केवल व्यवसायी ही गग या श्रेणी नहीं बनाते थे, किंतु कृपकों और व्यापारियों के भी गाणु बने घे : गौतम, मनु और बृहस्पति (६५८ ई.) की स्मृतियों में कृपकों के संघों का उल्लेख है। गड़ेरियों के संघों का परिचय शिलालेखों से मिलता है। राजेंद्र चोल ( ११ वीं शताब्दो ) के समय दक्षिण भारत के एक गांव के गड़ेरियों के गण को ६० भेड़ें इस प्रयोजन से दी गई थीं कि वह एक मंदिर के दीपक के लिये राज घो दिया कर एक शिलालेख से पाया जाता है कि विक्रम चौल के समय ५०० व्यापा- रियों का एक गण था। यह गण-पद्धति बहुत पहले से प्रचलित थी। बौद्ध साहित्य में बहुत बड़े गणों का वर्णन है। गुप्त काल में व्यव- सायियों के बहुत से गण विद्यमान थे । ४६५ ई. में तेलियों के एक गण को मंदिर का दिया जलाने का काम सौंपा गया था। इसी तरह कौलिक, गांधिक, धान्यक प्रादि लोगों के भी गण विद्यमान थे। ये गण बैंक का भी काम करते थे प्रायः .

  • स्टैवरिनस की यात्रा; पृ० ४१२ ।