सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. ( १७१ ) भारतवर्ष का संपूर्ण व्यापार और व्यवसाय इन्हीं गगों के द्वारा होता था। यहाँ कुछ शब्द सिक्कों के विषय में भी कह देना अनुचित न होगा। पहले भारत में द्रव्य-विनिमय (Birter) द्वारा ही व्यापार होता था। दुकानदार भी द्रव्य-विनिमय करके सिक्के खरीद फरोख्त करते थे राज्य की ओर से बहुत से कर्मचारियों को वेतन भी अनाजरूप में मिलता था। सर- कार भी अनाज के रूप में भूमिकर लेती थी। इस व्यवस्था के कारण भारत में सिक्के थोड़ी मात्रा में बनते थे। निक्कों की अधिक आवश्यकता भी न थी। प्रत्येक राजा अपने अपने नाम के सिक्के वनवाता था। सिक्के बहुधा सोने, चाँदी और ताँबे के बनते थे। भारत में बहुत प्राचीन काल से सिक्के बनने घे, परंतु उन पर कोई लेख या राजा का नाम नहीं लिखा जाता था, उनका कंबल तोल ही निश्चित रहता था। उन पर मनुष्य, पशु. पनी, मर्य, चंद्र, धनुष, वाण, स्तूप, बोधिद्रुम, स्वस्तिक, यस नदी, पर्वन आदि के चित्र तथा अन्य प्रकार के अनेक चित्र अंकित होने में ऐसे सिक्के सोने, चांदी और ताँबे के होते यह निश्चिन नहीं कि ये सिक्के राज्य की ओर से बनत छ अथवा व्यापारी या गण बनाते थे। सव से प्राचीन लेखवाले सिक्के इसवी सन पूर्व की नीमर्ग शताब्दी के मिलते हैं, जो मालव-जाति के हैं। इनके पीछे ग्रीक, शक, कुशन और क्षत्रों के सिक्के मिलते हैं यं निक्कं अधिक उत्तम और लेखवाले हैं। इनके सिक्कं सोने, चांदी और तोयं के होने घे । फिर गुप्तकाल में राजानों ने सिक्कों की तरफ वियप ध्यान दिया। यही कारण है कि उनके बहुत से लिवर उपलब्ध हान है.

दो पालिटिकट रिव्य शंस एंड :यूरीज भारी हिंदन ४...

1 . ---