सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- ( १७२ ) सोने के सिक्के गोल पार लेखवाले मिलते हैं और उनमें से कई एक पर कवितावद्ध लेख भी विममान हैं। चाँदी के निफों में गुप्तों ने भी असावधानी कर क्षत्रपां की नकल की। एक तरफ क्षत्रपां जैसा सिर और दूसरी तरफ उनका लेख रहता था । गुमों के पीछे छठी शताब्दी में हूणों ने ईरान का खजाना लूटा और वे वहां के ससानियन राजाओं के चांदी के सिक्के हिंदुस्तान में ले पाए। वे ही सिक्के राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, मालवा आदि प्रदेशों में चलने लग गए और पीछे से उन्हीं की भद्दी नकलें यहां भी बनने लग गई, जिनकी कारीगरी और आकार में न्यूनता पाते अाते अंत में उन पर के राजा के चेहरे की आकृति एसी बन गई कि लोग उसको गधे का खुर मानने लग गए, जिससे वे सिके गधिया नाम से प्रसिद्ध हुए । सातवीं शताब्दी के आसपास से हमारे राजाओं का ध्यान इधर आकृष्ट हुआ, जिससे राजा हर्प, गुहिलवंशी, प्रतिहारवंशी, तँवरवंशी, गाहड़वालों, नागवंशी (नरवर के), राष्ट्रकूटों (दक्षिण के), सालंकियां, यादवों, यौधेय, चौहान (अजमेर और साँभर के), उदांडपुर (प्रोहिंद) यादि के हिंदू राजाओं के नामवाले सोने, चाँदी या तावे के कितने एक सिक्के मिले हैं, परंतु प्रत्येक राजा के नहीं ! इससे सिक्कों के वेपय में राजाओं की असावधानी और उपेक्षा प्रतीत होती है। इसी से सोने आदि में मिलावट करनेवालों को तो दंड देने का उल्लेख स्मृतियों में मिलता है, परंतु राजा की आज्ञा के बिना सिफा बनानेवालों को दंड देने का उल्लेख नहीं मिलता। कभी किसी राजा की प्रिय रानी भी अपने नाम का सिक्का प्रचलित कर देती थी, जैसा अजमेर के चौहान राजा अजयदेव की रानी सोमलदेवी सोमलेखा) के सिक्कों से पाया जाता है । प्रारंभ में मुसलमानों ने अजमेर का राज्य छीनकर हाँ के प्रचलित हिंदू सिक्कों की नकल की, परंतु पीछे से उन्होंने सपने स्वतंत्र सिक्के बनाना शुरू किया। ,