पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/७९

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( ३४ ) होने का यह आवश्यक परिणाम था कि धार्मिक साहित्य में भी परि- वर्तन हो। इस काल में कई नई स्मृतियाँ वनीं, जिनमें तत्कालीन रीति रिवाजों का उल्लेख है। पुराणों के नए संस्करण होकर उनमें धौद्धों और जैनों से मिलती हुई वहुत सी बातें दर्ज की गई। व्रतों का प्रचार भी बहुत बढ़ा। कई देवताओं के नाम से विशेप व्रत किए जाते थे। पुण्य बुद्धि से ब्रत और उपवासों की प्रथा हिंदुओं ने बौद्धों और जैनों से ली। एकादशी, जन्माष्टमी, देवशयनी, दुर्गाष्टमी, ऋपि- पंचमी, देवप्रबोधनी, गौरी तृतीया, वसंतपंचमी, अक्षय तृतीया आदि त्योहारों पर व्रत रखने का अलवेरूनी ने उल्लेख किया है। यहाँ पर यह वात ध्यान देने योग्य है कि उसने रामनवमी का उल्लेख नहीं किया। संभवतः उस समय पंजाव में रामनवमी का प्रचार न था। इसी तरह अलबेरूनी ने कई धार्मिक त्यौहारों का भी वर्णन किया है। कई त्यौहार तो विशेषतः स्त्रियों के लिये होते थे । हिंदू समाज के धार्मिक जीवन में प्रायश्चित्तों का भी विशेप स्थान था। साधारण सामाजिक नियमों को भी धर्म का रूप देकर उनके पालन न करने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया था। हमारे निर्दिष्ट काल में जो स्मृतियाँ बनीं, उनमें प्रायश्चित्तों को मुख्य स्थान दिया गया। अंत्यजों के साथ खाने, अशुद्ध जल पीने, निषिद्ध और अपविन भोजन करने, रजस्वला और अंत्यजों के स्पर्श, उष्ट्री के दूध पीने, शूद्र, स्त्री, गौ, क्षत्रिय और ब्राह्मण की हत्या, श्राद्ध में मांस देने पर न खाने, समुद्र-यात्रा करने, जबर्दस्ती दास बनाने, स्त्रियों के बलपूर्वक म्लेच्छों द्वारा छीने जाने पर फिर शुद्ध न करने, व्यभिचार, सुरापान, गोमांसभक्षण, अपवित्र वस्तु के स्पर्श, शिखाच्छेदन, यज्ञोपवीत के विना भोजन करने आदि बातों पर चांद्रायण, कृच्छ आदि भिन्न भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान है। . 5

  • चि०वि०वैद्य; हिस्ट्री श्राफ मिडिएवल इडिया; जिल्द ३, पृ० ४३६-४६ ।