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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/८७

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( ४२ ) परंतु ऐसा करते हुए भी वे अपने सम्मान का पूरा खयाल रखते थे। वह नमक, तिल ( यदि वह अपने परिश्रम से वाया न गया हो), दूध, शहद, शराब और सांस प्रादि पदार्थ नहीं वेचते थे। इसी तरह ब्राह्मण सूद-वृत्ति को भी घृणित कार्य समझकर नहीं करते थे। उनके प्राचार व्यवहार में शुद्धि की बहुत मात्रा थो। उनका भोजन आदि भी अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक शुद्ध तथा सात्त्विक होता था, जिसका वर्णन हम आगे भोजन के प्रकरण में करेंगे। उनमें धार्मिकता और आध्यात्मिकता का विचार वहुत था और वे अपने को अन्य वर्गों से पृथक और ऊँचा रखने का प्रयत्न करते थे। अन्य वर्णों पर उनका प्रभाव बहुत समय तक बना रहा। राजनियमों में भी उन्हें बहुत रियायत दी जाती थी, वस्तुतः उस समय वर्णो का प्राचीन कर्तव्य-विभाग बहुत शिथिल हो रहा था और सभी वर्ण अपने अपने इच्छानुसार काम करने लग गए थे। पीछे से राजा योग्य व्यक्तियों को ऊँचे पदों पर नियत करने लगे थे, चाहे वे किसी वर्ण के ही क्यों न होंश । अपने निर्दिष्ट समय के प्रारंभ में हम हिंदू समाज को केवल चार वर्णो' और कुछ नीची जातियों में बँटा हुआ पाते हैं। ११ वीं सदी के प्रसिद्ध अलबेखनी ने भी चार वर्णो का ही ब्राह्मणों की उपजातिया उल्लेख किया है, परंतु हमें शिलालेखों से पता लगता है कि उस समय वर्गों में उपजातियाँ बनने लग गई थीं। अलवेरूनी ने जो कुछ लिखा है वह समाज की तत्कालीन स्थिति को ही देखकर नहीं, किंतु उसने जो कुछ पुस्तकों से पढ़ा था,

  • चि० वि० वैद्य; हिस्ट्री श्राफ मिडिएवल इंडिया; जिल्द २, पृष्ठ

१८१-८२॥ | अलवेरूनीज इंडिया; साचू कृत अँगरेजी अनुवाद; जि० १, पृ० १००-१०१ ।