पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/८८

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जैसा कि १०५० ( ४३ ) वह भी स्थल स्थल पर लिख दिया है, जिससे उसकी पुस्तक तात्का- लिक स्थिति का सच्चा परिचय नहीं देती। ब्राह्मण ६०० ई० से १००० ई. तक सिन्न भिन्न जातियों में बँटे हुए मालूम नहीं होते। उस समय तक ब्राह्मणों का भेद शाखा और गोत्र का उल्लेख करके ही किया जाता था, ई० के चंदेलों के ताम्रपत्र में भारद्वाज गोत्र, यजुर्वेदीय शाखा के विप्रवर ब्राह्मण का उल्लेख है। १०७७ ई० के कलचुरी लेख में, जो गोरखपुर जिले के कहन नामक स्थान से प्राप्त हुआ, ब्राह्मणों के नामों के साथ शाखा गोत्रादि के अतिरिक्त उनके निकास के नामों का नामोल्लेख है। इसी तरह कई अन्य शिलालेखों में ब्राह्मणों के वासस्थान का ही उल्लेख मिलता है। वड़नगर की कुमारपाल- प्रशस्ति (११५१ ई०) में नागर ब्राह्मण का उल्लेख है, कोंकण के बारहवीं सदी के लेख में ३२ ब्राह्मणों के नाम दिए हैं, जिनके गोत्र तो हैं शाखा नहीं, परंतु उनमें ब्राह्मणों के उपनाम भी साथ दिए हैं, जो उनके पेशे या स्थानों या अन्य विशेषतात्रों के कारण बने हुए प्रतीत होते हैं। बारहवीं शताब्दी में ऐसे उपनामों का बहुत प्रयोग होने लगा था, जिनमें से कुछ नाम चे हैं-दीक्षित, राउत, ठाकुर, पाठक, उपाध्याय और पट्टवर्धन आदि । इस समय तक भी गान और प्रवर प्रचलित थे, परंतु इन उपनामों की प्रधानता बढ़ती जाती थी। शिलालेखों में हम पंडित, दीक्षित, द्विवेदी, चतुर्वेदी, भाव- स्थिक, माथुर, त्रिपुर, अकोला, उंडवाण आदि नाम पाते हैं, जा स्पष्ट ही उनके कार्य और वासस्थान से निकले हुए प्रतीत होते हैं पीछे से इनमें से कितने एक उपनाम भिन्न भिन्न जातियां में परिणत यह जाति-भेद क्रमशः बढ़ता गया। इसके बढ़ने में दो तीन अन्य कारणों में भी बहुत कुछ सहायता दो. जेसं कि भोजन में भेद हो जाना। मांसाहारी और शाकाहारी होने में भी हो गए।