पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/९१

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, ( ४६ ) में ३६ वंशों का उल्लेख है। अब तफ भी क्षत्रिय वर्ण ऐसा रहा है, जिसमें जाति-सेद नहीं है। वैश्यों के मुख्य कार्य पशु-पालन, दान, यज्ञ, अध्ययन, वाणिज्य, कुसीद ( व्याज-वृत्ति ) और कृपि थे। बौद्ध काल में वर्णव्यवस्था शिथिल होने से उसका रूपांतर हो गया। वैश्य और उनका कर्तव्य वौद्धों और जैनियों के मतानुसार कृपि करना पाप माना गया, जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं। इसके अनु- सार वैश्य लोगों ने सातवीं सदी के प्रारंभ में ही कृपि को नीच कार्य समझकर छोड़ दिया था। हुएन्संग वैश्यों के विपय में लिखता है कि तीसरा वर्ण वैश्यों या व्यापारियों का है, जो पदार्थो का विनिमय करके लाभ उठाता है। चौथा वर्ग शूद्रों या कृषकों का है। वैश्यों ने भी कृषि कार्य छोड़कर दूसरे पेशे इख्तियार करने शुरू किए। वैश्यों के राजकार्य करने, राजमंत्री होने, सेनापति बनने और युद्धों में लड़ने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। हमारे समय के अंतिम भाग में उनमें जाति-भेद उत्पन्न होने लगा, ऐसा शिलालेखों से पाया जाता है। सेवा करनेवाले वर्ग का नाम शूद्र था। वह वर्ण अस्पृश्य नहीं था; ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की तरह शूद्रों को भी पंच महायज्ञ करने का अधिकार था। ऐसा पतंजलि-कृत महाभाष्य शूद्र और उसके टीकाकार कैयट की (जो भर्तृहरि के पीछे हुआ) टीका-'महाभाष्यप्रदीप'-से जान पड़ता है।।

  • वाटर्स श्रान युवनच्चांग; जिल्द १, पृष्ठ १६८ ।

शूद्राणामनिस्वसितानाम् २ । ४ । १० ॥ इस सूत्र के भाग्य में पतंजलि ने लिखा है कि एवं तहि यज्ञात्कर्मणोऽनिरवसितानाम् । अर्थात् जो शूद्र यज्ञ कर्म से बहिष्कृत न हों, वे अवहिष्कृत समझे जावें। इसकी