पृष्ठ:मध्य हिंदी-व्याकरण.djvu/१७

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( २ ) द्विस्पृष्ट उच्चारण जिह्वा का अग्र भाग उलटा कर मृर्द्धा में लगाने से होता है। इस उच्चारण के लिए इन अक्षरों के नीचे एक एक बिंदी लगाई जाती है। द्विस्पृष्ट उच्चारण बहुधा नीचे लिखे स्थानों में होता है---

( क ) शब्द के मध्य अथवा अंत में; जैसे--सड़क, पकड़ना, आढ़, गढ़, चढ़ाना।

( ख ) दीर्घ स्वर के पश्चात् अनुनासिक व्यंजन के संयोग में दोनों उच्चारण बहुधा विकल्प से होते हैं; जैसे--मूँडना, मूड़ना, खाँड, खाड़, मेंढा, मेंढ़ा।

३५--केवल स्पर्श-व्यंजनों* के एक एक वर्ग के लिए एक एक अनुनासिक व्यंजन है। अंतस्थ और ऊष्मा के साथ अनुनासिक व्यंजनों का कार्य अनुस्वार से निकलता है। अनुनासिक व्यंजनों के बदले में भी विकल्प से अनुस्वर आता है; जैसे, अङ्ग = अंग, कण्ठ---कंठ, अंश।

३६--अनुस्वार के आगे कोई अंतस्थ व्यंजन अथवा ह हो तो उसका उच्चारण दंत-तालव्य अर्थात् वँ के समान होता है; परंतु श, ष, स के साथ उसका उच्चारण बहुधा न् के समान होता है; जैसे, संवाद, संरक्षा, सिंह, अंश, हंस।

३७--अनुस्वार (ं) के उच्चारण में श्वास केवल नाक से निकलता है; पर अनुनासिक स्वर (ँ) के उच्चारण में वह मुख और नासिका से एक ही साथ निकाला जाता है। अनुस्वार


  • क से म तक। † य, र, ल, व ।‡ श, ष, स, ह ।