पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१००

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द्वितीयाऽध्णय उपनीय गुमः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादिनः । श्राचारमग्निकार्य च संध्योपासनमंत्र च ||६|| अज्येष्यमाणम्त्वाचान्तो यथाशास्त्र इमुन्नः । ब्रह्माञ्जलिकृतोऽध्याप्या लघुवासा जितेन्द्रियः॥७०॥ गुरु उपनयन कराकर शिष्य को प्रथम शोच, प्राचार सार्व प्रात होम तथा संध्यामन निसावे ।।९। पढ़ने वाले शिष्य का शास्त्र विवि से आचमन करके हाथ जोड़ कर उचर मुख हो, हलका बन्न पहिर, जितेन्द्रिय होकर पढ़ना चाहिये ।।७ प्रबारम्मेवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुगः महा। महत्व हस्ताबध्येयं स हि ग्राञ्जलिः स्मनः ।।७१॥ व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुगः । सम्येन सध्यः स्पृष्ठव्या दक्षिणेन च दक्षिणः ||७२|| वेदाध्ययन के आरम्म और समामि के समय सता गुरु चरण चे और हाथ जोड़ के पड़े। इसका प्रयाञ्जलि कहते हैं Hशा लग रहाय करकं गुरु के पैर छवे, दाहिने से और बारे से पानी 11 अध्येप्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रिनः । अर्धाश्वमो इनित्र याद्विरामोम्त्विनि चारमंत् ।।७३।। ब्रह्मणः प्रणनं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा । खवयनोंकृतं पूर्व पुरस्ताच विशीर्यति ॥४॥ ॥ पालत्यरहित गुरु सर्वदा पढ़ने वाले शिष्यकं प्रति प्रथम पढ़ने समय "अवीव भो.' अर्थान हे शिप्य पद'एस कह । पश्चात्