पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९९

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मनुस्मृति भाषानुवाद एप प्रोक्तोविजानीलामीपनायनिका विधिः । उत्पत्तिव्यञ्जका पुण्यः कर्मयागं निबोधत ॥६८). "स्त्रियों के विवाहसम्बन्धी जो विवि है, वही कंवल वेदोक्त कही है और पतिसेवा = गुरुकुशवास गृहकृत्यादि सायंप्राताम है।। (६६ ३ श्लोक का यह कहना तो ठीक है कि स्त्रियों के भी - मर्मावान से लेकर केशान्त संस्कार पर्यन्त सव संस्कार करने चाहिये, परन्तु इसके लिये किसी पृयक विधान की धावश्यकता नही, क्योंकि तीनो वर्गों के ला जो सरकार पूर्व कह पाये हैं, वे २ सब कन्या और पुत्र देना ही के हैं। पुलिन्न निर्देशनविवक्षित है। अर्थात् वत्ता का तात्पर्य वर्णमात्र में है, चाहे कन्या होचा पुत्र । जैसे कई कई कि (यात्राऽऽयमिप्यति स मृत्युमाप्त्यति = जो यहाँ आवेगा वह मर जायगा) इस नशा में यद्यपि पुटिङ्ग का निर्देश है. परन्तु कहने वाले का तात्पर्य स्त्री पुरुष दोनों से है । अथवा जैटिक शास्त्र में पुलिंग करके निर्देश करने हुवे ओ सामान्य विधि निपेय किये है, वे सव स्त्री पुरुष दोनों का समझ जाते हैं । ऐसे ही जो साधारण संस्कार हैं वे सब स्त्री पुरुषों के एक से और एक ही विविधाक्य से विहित समझने चाहिये और फन्यानो के विवाद संस्कार को छोड़ कर अन्य सरकारों में वेदमन्त्र पढने का निषेध भी प्रक्षिप्त है। जहां तक हमने देखा और विचाय है. वहाँ तक वेदों में कही यह निपेव नहीं पाया जाता। इसलिये ६६।६७ श्लोक स्त्री जाति के विद्वपी अन्य मतों के संसर्ग से प्रतिप्त जान पड़ते हैं। तथा ६५ ने श्लोक को ६८ वें श्लोक के साथ मिला कर पढिये तो ठीक सम्बन्ध चला जाता है ) ||६४ा यह ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यका उपनयन सम्बन्धी विधि कहा। यहविधि जन्मका जतलाने बाला और पवित्रकारक है (अब आगे ) कर्तव्यको सुनो ॥६॥