पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०१

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२८ मनुस्मृति भाषानुवाद 'विरामोस्विति' अर्थात 'अव बस करो ऐसे कहे, तव पदना बन्द करे ।।७३|| वेदके पढ़ने के प्रारम्भ में सदा प्रणव (ओम) का उच्चारण करे और अन्त में भी । यदि आदि में और अन्त में ओम् का उच्चारण न करे तो उस का पढ़ा हुआ धीरे २ नष्ट होजाता हे ||४|| प्राशलान् पर्युपासीनः पवित्रैश्चय पावितः । प्राणायासस्त्रिमिः पूतस्तत ओङ्कारमर्हति ॥७॥ अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः । वेदप्रपाभिवृहद व स्वस्तिोति च ७६।। पूर्वाप चढेको विधाकर उन पर बैठे और पवित्रोसे मार्जनकर पवित्र होकर, तीनवार प्राणायामोंसे पवित्रहो, ओङ्कारके उच्चारण करने योग्य होता है || ब्रह्मा ने तीनों वेदो से अकार उकार मकार और भूर्भुवः स्वः यह तीन व्याहृति सार निकाली हैं॥७३॥ निग्य एव तु वेदेश्यः पादं पादमदृदृहत् । तदित्यचास्याः साविन्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ॥७७। एतदक्षरमेतां च जपन व्याहृतिपूर्वि काम् । संध्ययो दविद्विषो वेदपुण्येन युज्यते (hell प्रजापति ब्रह्मा ने तीनो से 'तत्सवितु।" इससावित्री ऋचा एक एक पाद को दुहा है |७|| इस (ओसाररूप) अक्षर और त्रिपादयुक्त सावित्री को वीनो न्याति पूर्व लगा कर वेद का जानने वाला दोनों संध्यात्रा मे जपता हुवा विप्र वेद पढने के फल को भास होता है || सहस्रकृत्वस्त्वम्पस्व बहिरेतत्रिकं द्विजः ।