पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०८

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द्वितीयाऽध्याय भग्नीन्धनं भैश्चर्यामधः शव्यां गुगर्हितम् । आसमावर्तनातुर्यात्कृतोपनयना द्विजः ॥१०॥ जो पुरुष एक वर्ष पर्यन्त विधियुक्त नियम से पवित्र होकर स्वाध्याय पढ़ता है, उसके लिये वह (स्वाध्याय) दूध, दही, घृत, मधु का वर्षाता है ॥१०॥ उपनयन किया हुआ द्विना ब्रह्मचर्य व्रत को जब नक समावन न न हो, इस प्रकार कर-(समावर्तन उस का कहते है, जो गुरु से सम्पूर्ण विद्या पढ़कर घर जाने की अवधि है ) सायं प्रातहेमि. भिक्षा, भूमि पर शयन तथा गुरु का हित किया करे ॥१॥ आचार्यपुत्रः शुश्रूषानदो धार्मिकः शुचिः । प्राप्तः शक्तोऽर्थतः साधुः स्वाध्याप्यानराधर्मनः ॥१०॥ नापृष्टः कस्यचिद् व यान्न चाऽन्यायेन पृच्छतः । जाननपि हि मेधात्री जडवल्लोक आचरेन् ॥११०॥ आचार्यपुत्र, सेवक, ज्ञानान्तरदाता, धर्मात्मा, पवित्र, प्रामा- गिक, धारणाशक्ति चाला. धन देने वाला. हितेन और जाति : ये दश धर्म से पदाने योग्य है (अर्थात् इन को पढाना फर्ज है) ॥१८९॥ विना किसी के पूछे न वाले और अन्याय से पूछते हुवे से भी न बोले. किन्तु जान कर भी बुद्धिमान उन लोगामे अनजान सारहे ॥११॥ अधर्मेश च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति । गरन्यतरः प्रति विद्वप बाधिगच्छति ॥१११॥ धर्मार्थो यत्र न स्यातां शुश्रुपा गाऽपि तद्विधा । तत्र विद्यान वक्तव्या शुभं वीजमिवोपरे ॥११२।। .