पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०९

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१०६ मनुस्मृतिभाषांनुवार म्यों कि वर्ग से भर देता और जो अधर्म से पूछता है निदानों में एक मर जाना वा द्वैपी हो जाता है ।।१११॥ जिस (शिष्य के पहाने ) में धर्म और अर्थ न हो और वैसी गुरु में भक्ति भी न हो. उस का विद्या न पढावे । जैसे अच्छा वीजे उमर मन बावे (वाने से कुछ उत्पन्न नहीं होता) ॥१२॥ विद्ययर ममं कामं मतव्यं ब्रह्मवादिना । भापद्यपि हि धोगयां न स्वनामिरिणे वपैत् ।।११३॥ विद्या बामणमत्याह गेपिस्तेस्मि रक्ष माम् । अमयकाय मां मातास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा ॥११|| . चाहे विद्या के साथ मरना पडे, परन्तु वेदाध्यापक घोर आपत्ति में भी योग शिष्य न विचा न देवे ॥११३।। विद्या बाहरण के पास भाकर बोली कि मैं तरी निधि हूँ, मेरी रक्षा कर । असूयकाडि नाप वाले पुरुष का मुझे मत है। इस प्रकार करने से मैं बलवती होऊगी ॥११॥ यमेव तु शुचि विद्या नियतब्रह्मचारिणम् । तस्मै पां न हि विप्राय निधिपाया प्रमादिने ॥११॥ ब्रह्म सत्त्वननुज्ञानमधीयानादवाप्नुयात् । स ब्रह्मस्नेयमयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते ।।११६।। जिस को पवित्र, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी जाने और मुझ निधि रम की रक्षा करने वाला हो, ऐसे प्रमादरहित विप्र का पढावा ॥११५|| और जो काई अन्य पढ रहा हो. उस से विना उस के पढाने वाले की थाना के सीख लेवे, वह विद्या की चोरी में युक्त नरक को प्राप्त होता है (इस से ऐसा न करें)जो आशय यहां