पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११०

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'द्वितीयाध्याय १०७ मनु मे श्लोक ११४ । ११५ और ११६ का है, वही आशय निरुक्त २।३-४ से भी प्रमाणित होता है । यथा- नित्यं त्रिज्ञातुर्विज्ञानेऽस्योपसन्नाय तु नित्र यायो- बाल विज्ञानु स्यान्मेधाधिने तपस्विने या ॥३॥ विद्या ह ब्रामणमाजगाम गोपाय मा शेषधिष्टेहमस्मि । अस्यकायानृजवे यताय न मा या वीर्यवती तथा म्याम् । य आतृणत्यवितथेन कर्णाव-दुःखं कुर्वन्नमृतं संप्रयच्छन् । त मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न ढुवक- तमचनाह ॥ आध्यापिता ये गुरु नाद्रियन्ते विश्रा वाचा मनसा कर्मणा था । यथैव ते न गुरोर्मोजनीयास्तथैव तान मुक्ति अतं तत् ।। यमेव विधाः शुचिमप्रमा मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् । यस्तै नद्रुह्य त्कनमञ्चनाइ तस्मै मा व या निविपाय ब्रह्मन् ॥ इति, निधिः शेवधिरिति ।। विद्या ने (अध्यापक) ब्राह्मण से कहा कि मेरी रक्षा कर मैं तेरा (खजाना) निधि हूँ । चुगली करने वाले. क्रूर और ब्रह्मचर्य रहित को मेरा उपदेश न कर, जिस से मै बलवती हूं। जो सत्य से दोनों कान भरता है, दुःख दूर करता है और अमृत पिलाता है। उसे माता पिता करके मानना चाहिये उस से कमी द्वेष न करना चाहिये ॥११५॥ जो पढ़ लिख कर बुद्धिमान हो, अपने गुरु का मन, वचन वा कर्म से आदर नहीं करते वे जिस प्रकार गुरु के भोजनीय नहीं। इसी प्रकार उनका पढना सुफल नहीं। किन्तु हे ब्रह्मन् । जिस को तु शुद्ध अप्रमादी, बुद्धिमान , ब्रह्मचर्य से युक्त समझे और जो तुम से कभी द्वप न करे उस 4