पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१११

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मनुस्मृति भाषानुवाद निधि के रक्षक गिष्य को मरा मान ॥११॥ नोकि वैदिक वापि नथाध्यात्मिकमेव च । आदढीत यतो ज्ञानं नं पूर्वमभिवादयेत् ॥११७॥ सावित्रीमात्रमागपि वर विप्रः सुन्त्रितः । नान्त्रिास्त्रवेदापि सर्वाशी सर्वचिकयो ।।११८] जिस से लौकिक विद्या या बंदोक्त कर्मकाण्ड तथा ब्रह्मविद्या पढे इस । प्रतिष्ठिना के बीच पेठे हुए) का प्रथम नमस्कार करे (पश्चान अन्य का) || जो गायत्री मात्र का जानने वाला भी जितेन्द्रिय मित्र है, यह मिष्टा में मान्य है और जो तीनों वेदों फा मी पढा , परन्तु मध्यामात्य का विचार न रखता हो तथा सम्पूर्ण वस्तुओं का विक्रय करता हो, वह अजितेन्द्रिय शिष्टों में माननीय नही है ॥१८॥ शय्यासण्याचरिने श्रेयसा न ममाविशेद । शव्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ।।११।। उऱ्या प्राणाय नामन्ति युनः स्थविर आयति । प्रत्युन्यानामिनादास्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ॥१२०॥ जो शय्या या प्रामन विद्यादि से अधिक वा गुरु के स्वीकार किये हुवे हो उन पर आप वरावर न बैठे और वह (गुरु) आवे तो आप शय्या या धामन पर बैठा हुआ भी उठ कर नमस्कार करे ॥११९|| बडे आदमी के घर आने पर छोटे आदमी के प्राण ऊपर को उमरने लगते हैं। वे (प्राण ) उठ कर नमस्कागदि करने से स्वस्थता का प्राप्त होते हैं (इस अवश्य अपने से विद्यादि में अधिका का उठ कर नमस्कार करें)॥१२०॥ .