पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११२

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द्वितीयाध्याय १८९ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धापयिनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोयलं ॥१२१॥ अभिवादात्परं विनो ज्याय गममिवादयन् । असो नामाहमस्मीति स्त्र नामपरिकीर्तयेत् ॥१२२॥ जो प्रति दिन वृद्धा की सेवा करता है और नमस्कार करने के स्वभाव वाला है, उसकी चार वानु बढ़ती है, प्रायु विद्या यश और यज्ञ ॥१२शा वृद्धस्य नमस्कार करता हुआ विश्र 'मै नमस्कार करता हूं। इस अभिवादन वाक्य के अन्त मैं अमुक नाम वाला हूँ" से अपना नाम कहे ॥१२॥ नामधेयस्य ये केचिदभिवादं न जाननं । तान्प्राज्ञोहमिनि वयात् रिनसर्यास्तथैव च ॥१२३॥ भोः शब्द कीतदन्त स्वस्य नाम्नाऽभिवादने । नाम्नांस्वरूपभाग भोभावऋपभिःस्मनः ॥१२४॥ जो कोई नामधेबर्फ उच्चारणपूर्वक नमस्कार करना नहीं जानते उन से बुद्धिमान ऐसा कहते कि नमस्कार करता हूँ और सम्पूर्ण मान्य स्त्रियों का भी गेले ही कादं ॥१२शा अभिवाद्य के नामा के स्वरूप में भी यह सम्बोधन ऋपियों ने का है। इस से अपना नाम लेकर अन्तमें भी शब्द कहा करे ( अर्थात् अपने से बड़े अभिवादनीय पुरुष का नाम न ले किन्तु उस के नाम की जगह 'माः शब्द कहे) ॥१२॥ श्रायुप्मान्भव सौम्चेति वाच्यो विप्रोभिवादने । अकारश्चास्य नाम्नोन्ते वाच्य-पूर्वाक्षरः कुतः॥१२॥