पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११३

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मनुस्मृति भावानुवाद यो न वेत्यभिवादन विप्र प्रत्यभिवादनम् । नाभिवाद्य. म पिदुपा यथा शूद्रस्तथैव सः ॥१२६॥ नमस्कार करने पर आयुष्मान भवसौम्य ऐसा ब्राझणसे कहे। नमस्कार करने वाले के नाम के अन्त के व्यजन (शर्मन इत्यादि) से पूर्व प्रकार (या किमी वर) का प्लुत करे (इससे उसका आदर होता है ) ॥१२५।। जो ब्रामण नमस्कार करने पर क्या कहना चाहिय इमका नहीं जानना, वह शूद्र तुल्य है, नमस्कार करने के नोग्य नहीं है ॥१०॥ ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रवन्धुमनामयम् । वश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमागेग्यमेन च ॥१२७॥ अवाच्या दीक्षित नाम्ना यषीयानपि योभवेत् । मामवत्पूर्वकं त्वेनमभिमान धर्मनित् ॥१२॥ (नमस्कार के अनन्तर) मिलान होने पर ब्राह्मण से "कुशल" पूछे, क्षत्रिय से 'अनामय वैश्यमे 'क्षेम और शूद्रसे श्रारोग्य ही पूछे ।।१२७। यहि दीक्षित कनिट (छोटा) भी हो तथापि उसका नाम लेकर न बोले । (जो कुछ बोलना हो तो) धर्म का जानने वाला भी दीक्षित या आप (भावान्) कह कर बोले ।।१२।। परपत्नी तु या स्त्री स्यादसंबन्धा च योनितः। तां न याद्भवतीत्येनं सुभगे भगिनीति च ॥१२६।। मातुलांश्च पिठव्यांश्च श्वशुरानृत्विजो गुरून् । असावमिति व यात्प्रत्युत्थाय यवीयसः -॥१३०॥ परस्त्री जो योनि सम्बन्ध (रिश्ते) वाली न हो, उसके .