पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११४

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द्वितीयाऽध्याय • (बोलने के समय में) कहे कि भवति । मुभगे भगिनि । ॥१२॥ मातुल पितृव्य, श्वसुर, ऋत्विज, गुरु, यदि ये कनिउ (हाट । तो भी इनके आने पर उठ कर "अमौ अहम ऐसा कहे (अर्थान अपना नाम प्रकट फरे) ॥१३॥ मानुष्यसा मातुलानी श्वश्र रथ पितृप्वसा । सम्पूज्यागुरुपत्नीवन समास्ता गुरुभार्यया ।।१३१॥ प्रातुर्यायसग्राह्या सवर्णाम्हन्यहन्यपि । चिनोप्यतूपसंग्राह्या ज्ञातिसम्बन्धियोपितः ॥१३२॥ माता की भगिनी, मामी, सास और पितृ-भगिनी, ये सम्पूर्ण गुरु भार्या के तुल्य हैं इससे इनका आदर मत्कार गुम्मायावन् करे ॥१३॥ (ज्येष्ट) भ्राता की सवर्णा भार्या से प्रतिदिन नमस्कार आदि करे और नाति सम्बन्धिनी जो स्त्री है (मातृपक्ष की मातु- लानी इत्यादि और पितृपन के पितृव्यादिको की स्त्रिये) इनको परदेश से आने पर नमस्कार करे ।।१३।। पितुगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वमपि । मातृषवृत्तिमाविष्ठेन्माना ताम्बा गरीयसी ॥१३३॥ दशाब्दाख्यं पौरसख्य पञ्चान्दाख्य कलाभृताम् । व्यब्दपूर्व श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिपु।।१३१|| पितृभगिनी, मामगिनी और अपनी ज्येष्टा भगिनी इनका माताके समान आदर करें परन्तु माता इनसे अधिकतर है ।।१३।। एक-पुरनिवासियों का दश वर्ष वड़ा होने तक सख्य (वरावरी) होता है और यदि सङ्गीवादि कला के जानने वाले हों तो पांच वर्ष बड़ा होने तक सख्य ( वरावरी) होता है और श्रोत्रियों में तीन