पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११६

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द्विनीयाऽध्याय

  • राजस्नातकवार व स्नातका नृपमान भाक्॥१३६।।

उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । सकल्प सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते ॥१४०॥ ये सब नहां इकट्ठे हो वहां राजा और स्नातक अधिक मान- नीय हैं। उनमे भी राजा और स्नातक एक साथ मिल जाये तो राजा स्नातक को मान (रास्ता) देवे (स्नातक उस ब्रह्मचारी का कहते हैं जिसका समावर्तन हो चुका हो) ।।१३९॥ जो द्विज शिष्य का उपनयन करके कल्प और रहस्य के साथ वेद पढ़ावे उसको "प्राचार्य" कहते हैं (कल्प यज्ञविधि । रहस्य-उपनिषद्) ॥१४० एकदेशं तु वेनस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः । योध्यापयति वृत्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥१४१।। निकादीनि कर्माणि याकरोति यथाविधि । मंभावयति चानन स विनो गुरुरुच्यते ॥१४२॥ वेद के एक देश वा वेद के अङ्ग (व्यातिप व्याकरणादि) वृति के लिये ना पढ़ाने, उसका "उपाध्याय" कहते हैं ।।१४।। जो गर्भाधानादि शास्त्रोक्त कर्म कराता है और जो अन्न से पोपण करता है उस बामण को 'गुरु' कहते हैं ।।१४२॥ अग्न्याधयं पाकयज्ञानग्निप्लेमादिकान्मरखान् । यः करोति धृतो यस्य स तस्यविगिहाच्यते ॥११३॥ य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणात्रुभौ । स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुश्य कदाचन ॥१४४|| (जा पाहवनीय अग्नि को उत्पन्न करके कर्म किया जाता है १५