पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११७

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११४ मनुस्मृति भाषानुवाद उसको) अग्न्यावेय (कहते है) और पाकयन्त्र (वश्ववादि) और अग्निष्टोमादि यज्ञों का वरण लेकर जा जिस करावे उसका इस शास्त्र में उसका "ऋत्विज कहते हैं ।।१४२|| जो (क) सत्यविद्या ने से दोनो कणों का भरता है वह माता पिता के तुल्य जानने योग्य है, उससे कभी द्रोह न करे ।।१४४॥ उपाध्यायान्दशाचार्य श्राचार्याणां शतं पिता । सहमतु पितन्माना गौग्वेणातिरिच्यते ॥१४॥ उत्पादकब्रह्मदात्रार्गरीयान्नाटा पिता । मजन्म हि वित्रस्य प्रत्य चेहच शाश्वतम् ॥१४६॥ दश १० उपाध्यायों के तुल्य गौरव (बडाई) एक आचार्य में और शत १०० प्राचायों के समान पिता में और पिता से सहस- गुणित माता मे होता है ।।१४५॥ उत्पन्न करने वाला और वेद का पढ़ाने वाला (ये दोनो पिता हैं) इनमें ब्रह्म का देने वाला बड़ा है क्योकि विप्र का ब्रह्मजन्म हीहिस लोक तथा परलोक मे शाश्वत (स्थिर फल का हेतु) है ॥१४॥ कामान्मातापिताचैनं यदुन्पादयता मिथः । सम्भूति तस्य तां विद्याययोनावभिजायते ॥१४७॥ प्राचार्यस्त्वस्थयां जाति विधिवद्ध दपारगः । उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साजरामरा ॥१४८॥ माता और पिता तो काम वश होकर भी इस बालक को उत्पन्न करते हैं इससे जिस योनि में वह जाता है, उसी प्रकार उसके हस्त पादादि हो जाते है ॥१४॥ परन्तु सम्पूर्ण वेद का जानने वाला आचार्य इस बालक की विधिवत् गायत्री उपदेश