पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/११९

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मनुस्मृति भाषानुवाद अझं हि वालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥१५३ न हायनैर्न पलितैर्न विचन न बन्धुभिः । अपयश्चक्रिरे धर्म योनूचानः स नो महान् ॥१५४॥ अज्ञानी ही बालक है और मन्त्र का देने वाला पिता है इससे अन्न को वालक और मन्त्रदाता को पिता कहते हैं ॥१५शान बहुत श्रायुसे, न शेत बालोसे न द्रव्यसे, न नातेमे बड़ाईसे घड़ाई है। किन्तु जो वेदाध्ययनपूर्वक धर्म का जानने और करने वाला है वही इम ऋषियो में बना है। यह धर्मव्यवस्था शूपियो ने की है ॥१५४॥ विप्राणां ज्ञानता ज्येष्ठवं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः । पैश्यानां धान्यवनतः शुद्राणामेव जन्मतः ॥१५॥ न तेन वृद्धो भवति बेनास्य पलितं शिरः । यो नै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः ॥१५६।। ब्राह्मणो का ज्ञान की अधिकता से बड़प्पन होता है और क्षत्रियो का पराक्रम से, वैश्यों का धन धान्य की समृद्धि से और शूटो का जन्म से ।।१५५|| शिर के केश श्वेत होने से वृद्ध नहीं होता, यदि युवामी लिखा पढाहो तो उसको देवता वृद्ध जानते हैं। यथा काष्ठमया हस्ती यथा चर्ममयो मृगः । यश्च विप्रोनधीयान स्त्रयस्ते नाम विभूति ॥१५७|| यथा घण्टोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला । यथा चाफलं दानं तथाविप्रोनचोऽफलः ॥१५८|| जैसे काष्ठ का हाथी और चमड़े का मृग है वैसे विना पड़ा