पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२०

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द्वितीयाऽध्याय ब्राह्मण का पुत्र, ये तीनों नाममात्र को धारण करते हैं ।१५७। जैसा स्त्रियों में नपुंसक निष्फल और गौ मे गौ तथा अन्नानी में धान निष्फल है वैसे ही वेदरहित ब्राह्मण निष्फल है ।।१५८।। अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् । वाक्वैव मधुराश्लक्ष्णा प्रयोज्याधर्ममिच्छता॥१५॥ यस्य वाङ्गमनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा । सबै सनमवाप्नोति वेदान्तापगतं फलम् ॥१६०॥ प्राणियों को श्रेय अर्थान् कल्याणरूपी अर्थकी शिक्षा अहिंसा (दुख न देकर) ही से करे और वाणी मधुर और सष्ट कहे, धर्म की इच्छा करने वाला (कर भापणादि न करे) ॥१५९। जिसके वाणी और मन शुद्ध और (क्रोष मिथ्याभाषणादिको से) सता सुरक्षित हो वह वेदान्तके यथार्थ सब फल को प्राप्त होता है (माक्ष लाभ करता है) ||१०|| ना रुन्तुरः स्यादातोपि न परद्रोहकर्मधीः । ययास्यो द्विजतवाचा नोलोक्यां तामुदीरयेत्॥१६॥ संमानाद् ब्रामणो नित्यमुद्विजेत विपादिव । अमृतस्येव चाकाझेदवमानस्य सर्वदा ॥१६२॥ दवाव पड़ने पर भी किसी के मर्मच्छेदन करने वाली बात न वोले । दूसरे के साथ द्रोह करनेवाली बुद्धि नकरे और जिस वाणी से दूसरा डरे, लोक की अहित करने वाली ऐसी कोई बात न बोले ॥१६१॥ ब्राह्मण सम्मान से सर्वदा (सुख नहीं माने ) विषवत् डरे और सर्वदा अपमान की अमृतवत् इच्छा करे (मान अपमान से उसको दुःखादि न होवे) ॥१६॥