पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२१

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मनुस्मृति भाषानुवाद सुखं अवमतः शेने सुखं च प्रतिबुद्धयते । . मुर्ख चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति ॥१६॥ अनेन क्रमागेन मंस्कृतात्मा द्विजः शनैः । गुरौ वमन्संचिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः ॥१६४॥ ॥ दूसरे से अपमान किये जाने पर भी खेद न करता हुआ पुरुष सुन्न पूर्वक शयन करना है, मुन्नपूर्वक जागता है लोगों में व्यवहार करता है और अपमान करने वाला (उस पाप से) नष्ट हो जाता है ।।१६। इस क्रम से (जातकर्म से उपनयनपर्यन्त ) संस्कार किया हुआ द्विज, गुरु के समीप वास करता हुआ वेद के ग्रहणार्थ वप का संचय करे ॥१६॥ तपाविशेष िनिग्धैत्र तेच विपिचोदितः। वेद कृत्स्ना विगन्नन्य सरहस्या द्विजन्मना ॥१६५।। वेदमेव सदाभ्यस्येत्तपस्तपस्यन् द्विजाचम: वेदाभ्यास हि विनम्य तपः परमिहोच्यते ॥१६६।। विधिविहित विविध तपाविशेष (समत्र नियमानि ) और व्रतों (गुरुसेवनादि) से सम्पूर्ण वेद उपनिदो के सहित, द्विजन्मा- ग्रामण क्षत्रिय वैश्य को पढ़ाना योग्य है ।।१६५|| तप करना हो तो ब्राह्मण वेट ही का सदा अभ्यास करे । वेदाम्यास ही ब्राह्मण का परम तप कहा है।॥१६॥ आहेब स नखानेभ्यः परम तप्यते तपः । यः सग्न्यपिद्विनाम्धीते स्वाध्यायशक्तितोऽन्वहम् ॥१६७|| योऽनधीत्य द्विजावेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥१६॥ )