पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२२

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द्वितीयाऽध्याय ११९ जो द्विज पुष्पमाला को भी धारण करके (ब्रह्मचर्य समाप्त करके भी) प्रतिदिन यथाशक्ति वेदाध्ययन करताहै वह निश्चय नख शिख तक परम तप करता है (अर्थात् इससे अधिक कोई तप नहींहै ) ॥१६॥ जो द्विज वेढ को विना पढ़े अन्य कार्यमे नमकरे, वह जीता हुआ ही वंश के सहित शहता को प्राप्त होता है ॥१६॥ मातुर धिजननं द्वितीयं मौजिबन्धने । तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिवादनात् ॥१६६।। तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौजीबंधनचिन्हितम् । तास्य मातासावित्री पितास्त्राचार्य उच्यते ॥१७०॥ श्रुति की आज्ञा से द्विज के प्रथम मातासे जन्म दृमरे मौजी बन्धन तीसरे यज्ञ की दीक्षा में ये तीन जन्म होते हैं ॥१६९।। इन पूर्वोक्त तीनों जन्मों में वेदग्रहणार्थ उपनयन संस्कारल्प जो जन्म है उस जन्म में उस बालक की माता सावित्री और पिता आचार्य कहाते हैं।॥१७॥ वेदप्रदानादाचार्य पितरं परिचक्षते । नस्मिन्युज्यते कर्म किंचिदामौजिवन्धनात् ॥१७१।। नामिन्याहारवेद् मा स्वधानिनयनादृते । शूद्रेण हि समस्तापवावद्व दे न जायते ॥१७२|| वेद के प्रदान से प्राचार्य को पिता कहते हैं। उस बालक की मौवीबन्धन से पूर्व कोई (ौतग्माादि) क्रिया ठीक नहीं है ॥१७॥ (मौजीवन्धन से पूर्व ) वेद का उच्चारण न करावे परन्तु मृतक संस्कार मे वेद मन्त्रों का उच्चारण वर्जित नहीं है। जब तक वेद में जन्म नहीं हुआ तब तक शूद्र के तुल्य है ।।१७२।। .