पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२३

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T मनुस्मृति भाषानुवार कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशनमिष्यते । ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम् ॥१७३|| यद्यस्य विहितं चर्म यत्स्नं या च मेखला । यो दण्डो यच्च वसनं तत्तदस्य व्रतेष्वपि ॥१७४॥ इस बालक को (सायं प्रात होम करना और दिन मे न सोना इत्यादि) व्रत और क्रमपूर्वक विधिसे वेदका अध्ययन उपनयन हुवे को कहा है (इसलिये पूर्व न करे) ॥१७॥ जो जिसको चर्म, सून, मेखला, दण्ड और वस्त्र (उपनयन में) कहा है वही उसका व्रतों में भी जाना ॥१४॥ सेवेतमांस्तु नियमान्वमचारी गुरौ वसन् । सनियम्यन्तियत्रामं तपो बुद्धयर्थमात्मनः ॥१७॥ नित्यं स्नात्वा शुचिः कुयाई वर्षि पितृतर्पणम् । देवाताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च ॥१७६॥. ब्रह्मचारी गुरु के पाम रहता हुआ इन्द्रियों का संयम करके अपने तप की वृद्धि के लिये इन (जो आगे वर्णित हैं) नियमों का पालन करे ॥१७॥ प्रतिदिन स्नान करके पवित्र होके देव ऋषि और पितृसंज्ञक पुरुषो को जलादिसे तर्पण करे और समिधों का प्राधान कर होम से देवताओं का पूजन करें ॥१७६॥ वर्जयेन्मधुमासं च गन्ध माल्य रसान्त्रियः । शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ॥१७७।- अम्यङ्गमञ्जनं चाणोमानच्छनधास्यम् । काम क्रोधं च लोमं च नर्तनं गीतवादनम् ।।१७'. इन वस्तुओं को छोड़ देवे-मधु, मांस गन्ध माल्य अच्छे