पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२५

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१२२ मनुस्मृति भाषानुवाद ब्रह्मचार्याहरेदई गहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम् ॥१८॥ गुरोः कुले न मिक्षेन न ज्ञानिकुलबन्धुषु । अलामे त्वन्गगेहाना पूर्व पूर्व विवर्जयेत् ॥१८॥ वेद और यज्ञ से जाहीन नही हैं और अपने निवा प्रतिक्षित हैं, ऐंसों के घरों से ब्रह्मचारी प्रतिदिन नियम से मिक्षा लावे ॥१८॥ गुरु और गुरु के शाति वाले कुल और बन्धु, इन के कुल से भिना न मांगे। यदि और जगह न मिले तो (इन में स) पहिले पहिला को छोड़ देवे ।।१८।। रा बापि चरेद् प्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे । नियम्य प्रयता वाचममिशस्तरितु वर्जयेत् ॥१८॥ दूरादाहत्य समिधः संनिध्याहिहायसि । सायं पातश्च जुड्याचाभिरग्निमतन्द्रितः ॥१६॥ पूर्वोचों वियज्ञ सहिनों) से कहीं न मिले तो चाहे और सबमाम से भिक्षा मांगे, परन्तु बहुत न बोलकर और उनमे भी महापातकी आदि को छोड़ दे ॥१८॥ दूर से समिधा लाकर चे पर रक्खे, बालस्य छोड़कर सार्य प्रात. उनसे अग्नि मे होम किया करे ।१८६ अकृत्वा मैक्षचरणमसमिध्य च पविकम् । अचानुरः सप्तरात्रमवकीर्णिवतं चीत् ॥१८७॥ भेक्षणे वचीनित्यं नैकानादी भवेद् व्रती। मैत्रेण प्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा स्मृता ॥१८! (यदि ) विना रोगादि बाधा ब्रह्मचारी सात दिन भिक्षावृति और अग्नि मे समिधों से सायं प्रातमि न करे तो (ब्रह्मचर्यव्रत - >