पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२६

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द्वितीयाऽध्यावं १२३ नष्ट होता है) उस पर अवकीर्णित्रत (११ अध्यायोक्त) प्रायश्चित्त करे॥१८॥ ब्रह्मचारी भिक्षा करके नित्य भोजन करे और एक का अन्न भावन न करें (किन्तु बहुत घरोसे मिक्षा मांग के भोजन करे), क्यों कि मिक्षासमूह से जो ब्रह्मचारी की वृत्ति है वह उप- वास के तुल्य ( मुनियों ने कही) है। (१८८ के आगे ३० पुराने पुस्तकों में से ८ जगह के पुस्तकों की दीका में मूल के स्थान में ये दो श्लोक अधिक पाये जाते हैं। शेप २२ पुस्तकों में नहीं वे ये हैं: न मैक्ष्यं परपाकः स्यान्न च मध्यं प्रतिग्रहः । सोमपानसमं मैक्ष्यं तस्माद्ध त्येण वर्धयेत् ।। भैच्यस्यागमशुद्धम्य प्रोक्षितस्य हुतस्य च । यास्तस्य असते प्रासांस्ते तस्य ऋतुभिः समाः।।] ये किसी ने मिक्षा की निन्दा वा ग्लानि देख कर बना दिये हैं। जिन का अर्थ यह है कि "भिक्षा का अन्न न तो परपाक है न प्रतिग्रह है, किन्तु सोमपान के तुल्य है, इस लिये मिक्षा के अन्न से वृत्ति करें। मिक्षा का अन्न शास्त्र से विहित, शुद्ध, प्रोधित हुत हो तो उनके जितने पास खाता है, उतने यज्ञों का फल खाने वाले को होता है । इस से भी जाना जाता है कि समय २ पर मनु में प्रक्षप होता रहा है) ॥१८॥ प्रतवद्द वदैवत्ये विध्ये कर्मण्यपिवत् । काममभ्यर्थितोऽरनीयाद् व्रतमस्य न लुप्यते ॥१८॥ धामणस्यैव कमैतदुपदिष्टं मनीषिभिः । राजन्यवैश्ययास्त्वेणे नैतत्कर्म विधीयते ॥१०॥